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आदिपुराणम्
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जयोsपि सुचिरात्प्राप्तप्रतिपक्षो व्यदीप्यलम् । लब्धेव रम्धनं वह्निः उत्साहाग्निस खोच्छ्रितः ॥२२१॥ तदो भयबलख्यातगजाद्रिशिखर स्थिताः । योद्धमारेभिरे राजराजसिंहाः परस्परम् ॥२२२॥ अन्योन्यरदनोद्भिनौ तत्र कौचिद् व्यसू' गजौ । चिरं परस्पराधारावाभातां यमलानिवत् ॥ २२३ ॥ समन्ततः शरैश्च्छन्ना रेजुराजौ गजाधिपाः । क्षुद्रवेणुगणाकीर्ण संचर गिरिसन्निभाः ॥ २२४ ॥ दानिनो मानिनस्तुंगाः 'कामवन्तोऽन्तकोपमाः । महान्तः सर्वसत्त्वेभ्यो न युद्धयन्तां कथं गजाः ॥ २२५ ॥ "मृगैर्मृ "गैरिवापात " मात्रभग्नैर्भयाद् द्विपैः । स्वसैन्यमेव संक्षुण्णं धिक् स्थौल्यं भीतचेतसाम् ॥ २२६ ॥ निःशक्तीन् शक्तिभिः शक्ताः' शक्तांवरशतकान् ।
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"शक्तियुक्तानशक्तांश्च निःशक्तीन्" धिग्धिगूनताम् ॥२२७॥
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शस्त्रनिर्भिन्नसर्वाङ्गा निमीलितविलोचनाः । सम्यक संहृतसंरम्भाः संभावितपराक्रमाः ॥ २२८ ॥ बुद्ध्यैव बद्धपल्यङ्कास्त्यक्तसर्वपरिच्छदाः । समस्याक्षुरसूच्छूरा ४ निधाय हृदयेऽर्हतः ॥ २२६॥
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जयकुमारको रोकने लगे || २२० ॥ जिस प्रकार बहुत-से इन्धनको पाकर वायुसे उद्दीपित हुई अग्नि देदीप्यमान हो उठती है उसी प्रकार उत्साहरूपी वायुसे बढ़ा हुआ वह जयकुमार भी बहुत 'देर में शत्रुको पाकर अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा था || २२१ | उस समय दोनों सेनाओंमें प्रसिद्ध हाथीरूपी पर्वतोंके शिखरपर बैठे हुए अनेक राजारूपी सिंहोंने भी परस्पर युद्ध करना आरम्भ कर दिया था ॥ २२२ ॥ उस युद्ध में एक दूसरेके दाँतों के प्रहारसे विदीर्ण होकर मरे कोई दो हाथी मिले हु दो पर्वतोंके समान एक दूसरेके आधारपर ही चिरकाल तक हुए खड़े रहे थे ॥२२३॥ चारों ओरसे बाणोंसे ढके हुए बड़े-बड़े हाथी उस युद्ध में छोटे-छोटे बाँसोंसे व्याप्त और चलते हुए पर्वतोंके समान सुशोभित हो रहे थे || २२४ || जो दानी हैं - जिनसे मद झर रहा है, मानी हैं, ऊंचे हैं, यमराजके समान हैं और सब जीवोंसे बड़े हैं ऐसे भद्र जातिके हाथी भला क्यों न युद्ध करते ? ॥ २२५ ॥ जिस प्रकार हरिण भयभीत होकर भागते हैं उसी प्रकार मृगजातिके हाथी भी प्रारम्भमें ही पराजित होकर भयसे भागने लगे थे और उससे उन्होंने अपनी ही सेनाका चूर्ण कर दिया था इससे कहना पड़ता है कि भीरु हृदयवाले मनुष्योंके स्थूलपनको धिक्कार हो ॥ २२६ ॥ शक्तिशाली ( सामर्थ्यवान् ) योद्धा अपने शक्ति नामक शस्त्र से, जिनके पास शक्ति नामक शस्त्र नहीं है ऐसे शक्तिशाली ( सामर्थ्यवान् ) योद्धाओं को शक्तिरहित - सामर्थ्यहीन कर रहे थे और जिनके पास शक्ति नामक शस्त्र था किन्तु स्वयं अशक्त सामर्थ्यरहित थे उन्हें भी शक्तिरहित - शक्ति नामक शस्त्रसे रहित कर रहे थे- उनका शस्त्र छुड़ा रहे थे इसलिए आचार्य कहते हैं कि ऊनता अर्थात् आवश्यक सामग्रीको कमीको धिक्कार हो ॥ २२७॥ जिनके समस्त अंग शस्त्रोंसे छिन्न-भिन्न हो गये हैं, नेत्र बन्द हो गये हैं, जिन्होंने युद्धकी इच्छाका अच्छी तरह संकोच कर लिया है, जो अपना पराक्रम दिखा चुके हैं, जिन्होंने बुद्धिसे ही पल्यंकासन बाँध लिया है और सब परिग्रह छोड़ दिये हैं ऐसे कितने ही
१ रन्धनम् इन्धनम् । लब्धेर्बद्धेन्धनं ल०, म० अ०, प०, स०, इ० द० । २ उत्साहवायुना समृद्धः । ३ राजराजमुख्याः । सिंहाः इति ध्वनिः । ४ विगतप्राणौ । ५ अन्योन्यावलम्बनो । ६ यमकगिरिवत् । ७ संचल गिरिल०, अ०, प०, स०, इ० म० । ८ आरोहकानुकूला इत्यर्थः । ९ युध्यन्ते ल० । १० मृगजातिभिः । भक्त्यान्वेषणीयैर्वा । ११ हरिणैरिव । १२ प्रथम दिशायामेव । १३ संचूर्णमभवत् । १४ शक्त्या युधरहितम् । १५ शक्त्यायुधैः । १६ समर्थाः । १७ समर्थान् । १८ शक्त्यायुधयुक्तान् । १९ शक्त्यायुध र हितान् । २० सामग्री विकलताम् । २१ सम्यगुत्सृष्टसमारम्भाः । २२ मनसैव कृतपर्यङ्कासनाः । २३ सम्यक् त्यक्तवन्तः । २४ प्राणान् ।