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आदिपुराणम्
प्रस्फुरद्भिः फलोपेतैः सुप्रमाणैः सुकल्पितैः । विरोधोद्भाविना विश्वगोचरैर्विजयावहैः ॥ १३९ ॥ वादिनेव जयेनोच्चैः कीर्ति क्षिप्रं जिघृक्षुणा । प्रतिपक्षः प्रतिक्षिप्तः ' शस्त्रैः शास्त्रैर्जिगीषुणा ॥१४०॥ खगाः खगान्प्रति प्रास्ताः प्रोद्भिद्य गगनं गताः । निवर्तन्ते न यावत्ते ते भियेवापतन्मृताः ॥१४१॥ सुतीक्ष्णा वीक्षणाभीलाः प्रज्वलन्तः समन्ततः । मूर्द्धस्वशनिवत्पेतुः खाद् विमुखाः खगैः शराः ॥ १४२॥ शरसङ्घातसञ्छन्नान् गृध्रपक्षान्धकारितान् । अदृष्टमुद्गरापात नभोगा नमसो व्यधुः ॥ १४३ ॥
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काण्डमृत्युश्च'' काण्डैरापाद्यतादिमें" । युगेऽस्मिन् किं किमस्तांशुभासिभिर्नाशुभं भवेत् ॥ १४४॥ दूरपाताय नो किन्तु दृढपाताय खेचरैः । खगाः कर्णान्तमाकृष्य मुक्ता " हन्युद्विपादिकान् ॥ १४५ ॥ अधोमुखाः खगैर्मुक्ता रक्तपानात् पलाशनात् ' | पृषत्काः सहसो वेयुर्नरकं वाऽवनेरधः " ॥ १४६॥
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जान पड़ता था मानो वे बाण कपट युद्ध कर रहे हों क्योंकि जिस प्रकार कपट युद्ध करनेवाले पत्रवंत अर्थात् सवारी सहित और प्रतापसे उग्र होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पत्रवंत अर्थात् पंखों सहित और अधिक सन्तापसे उग्र थे, जिस प्रकार कपटयुद्ध करनेवाले युद्ध में शीघ्र जाते हैं और सबसे आगे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी युद्ध में शीघ्र जा रहे थे और सबसे आगे थे तथा कपट युद्ध करनेवाले जिस प्रकार बिना जाने सहसा आ पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी बिना जाने सहसा आ पड़ते थे ।। १३८ || जिस प्रकार विजयके द्वारा उत्तम कीर्तिको शीघ्र प्राप्त करनेवाला और जीतने की इच्छा रखनेवाला वादी प्रकाशमान, अज्ञाननाशाद्रि फलोंसे युक्त, उत्तम प्रमाणोंसे सहित अच्छी तरह रचना किये हुए, संसारमें प्रसिद्ध और विजय प्राप्त करानेवाले शास्त्रोंसे विरोधी प्रतिवादीको हराता है उसी प्रकार विजयके द्वारा शीघ्र ही उत्तम कीर्ति सम्पादन करनेवाले, जीतनेकी इच्छा रखनेवाले तथा विरोध प्रकट करनेवाले जयकुमारने देदीप्यमान, नुकीले, प्रमाणसे बने हुए, अच्छी तरह चलाये हुए, संसार में प्रसिद्ध और विजय प्राप्त करानेवाले शस्त्रोंसे शत्रुओंकी सेना पीछे हटा दी थी १३९- १४० ।। जयकुमारने विद्याधरोंके प्रति जो बाण चलाये थे वे आकाशको भेदन कर आगे चले गये थे और वहाँसे वे जबतक लौटे भी नहीं थे तबतक वे विद्याधर मानो भयसे ही डरकर गिर पड़े थे ॥ १४१ ॥ जो अत्यन्त तीक्ष्ण हैं, देखने में भयंकर हैं, और चारों ओरसे जल रहे हैं आकाशसे छोड़े हुए बाण योद्धाओंके मस्तकोंपर वज्रके समान पड़ रहे || १४२|| जो बाणोंके समूहसे ढक गये हैं, गीधके पंखोंसे अन्धकारमय हो रहे हैं और जिन्हें मुद्गरोंके आघात तक दिखाई नहीं पड़ते हैं ऐसे योद्धाओंको विद्याधर लोग आकाशसे घायल कर रहे थे || १४३ || इस युगमें उन तीक्ष्ण बाणोंने सबसे पहले अकालमृत्यु उत्पन्न की थी सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने सूर्यका प्रताप भी कम दिया है ऐसे लोगोंसे क्या-क्या अशुभ काम नहीं होते हैं ? || १४४ || दूर जानेके लिए नहीं किन्तु मजबूती के साथ पड़नेके लिए विद्याधरोंने जो बाण कान तक खींचकर छोड़े थे उन्होंने बहुत-से हाथी आदिको मार डाला था ।। १४५ || जिस प्रकार रक्त पीने और मांस खानेसे पापी जीव नीचा मुख कर नरकमें जाते हैं उसी प्रकार विद्याधरों
।।
ऐसे विद्याधरोंके द्वारा
थे
१ निराकृतः । २ बाणाः । ३ विद्याधरान् । ४ मुक्ताः । ५ विद्याधराः । ६ दर्शने भयावहाः । ७ मुद्गराघातान् ल०, म० । ८ गगनमाश्रित्य । ९ अकाल । १० बाणैः । ११ उत्पादित । १२ 'अस्त्राशुगाशिभिः' इति पाठे अस्त्राण्ये - वाशिनः पवनाशनाः तैः सरित्यर्थः । 'आशुगो वायुविशिखो' इत्यभिधानात् । १३ न । १४ घ्नन्ति स्म । १५ मांसाशनात् । १६ सपापाः । १७ वा इव । ईयुः गच्छन्ति स्म । १८ भूमेरधः स्थितम् ।