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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
- ४०५ संनद्धस्यन्दनाश्चण्डास्तदा हेमाङ्गदादयः । कोदण्डास्फालनवाननिरुद्ध हरितः कुधा ॥१८॥ पत्रषुर्वहिवृष्टिं वा बाणवृष्टिं प्रति द्विषः । यावत्ते लक्ष्यता नेयुस्तावदाविष्कृतोयसाः ॥१६॥ निरुध्यानन्तसेनादिशरजालं रणाणवे । स्यन्दनाश्चोदयामासुः पोतान्या वातरंहसः ॥१९॥ बलद्वयास्त्रसंघट्टसमुत्पन्नाशुशुक्षणिम् । पेतुर्वाहाः परं तेजस्तेजस्वी सहते कथम् ॥१६॥ भन्योऽन्यं खण्डयन्ति स्म तेषां शस्त्राणि तद्रणे । नैकमप्यपरान्प्रापुश्चिन्न मस्त्रेषु कौशलम् ॥१९२॥ न मृता व्रणिता नैव न जयो न पराजयः । युद्धमानेवहो तेषु नाहवोऽप्याहवायते ॥१३॥ युद्ध्वाऽप्येवं चिरं शेकुर्न जेतुं ते परस्परम् । जयः सेनाद्वये तस्मिन्"जयादन्येन दुर्लभः ॥१४॥ अन्तर्हासो जयः सर्व तत्तदाऽऽलोक्य लीलया । शरैः संच्छादयामास सैन्यं पुत्रस्य चक्रिणः ॥१५॥ निष्पन्दीभूतमालोक्य चक्रिसूनुः स्वसाधनम् । रक्तोत्पलदलच्छायामुच्छिद्यनयनत्विषा ॥१९६॥ जयः परस्यनो मेऽद्य जयो"जयमहं रणे। विध्वस्य 'भुवने शुद्धमकल्पं स्थापये यशः ॥१७॥ विदध्यामद्य नाथेन्दुसरदशवर्द्धनम् ।' जयलक्ष्मीर्वशीकृत्य विधेयान्मेऽधुना सुखम् ॥१८॥
और सबको जीतते हुए उस जयकुमारको सहन करनेके लिए असमर्थ होकर वे सब शत्रु उसपर इस प्रकार टूट पड़े मानो अग्निपर पतंगे ही पड़ रहे हों ।।१८७॥ इतनेमें ही जिनके रथ तैयार हैं, जो बड़े क्रोधी हैं, जिन्होंने क्रोधसे धनुष खींचकर उनके शब्दोंसे सब दिशाएँ भर दी हैं और शत्रु जबतक अपने लक्ष्य तक पहुँचने भी न पाये थे कि तबतक ही जिन्होंने अपना सब उद्यम प्रकट कर दिखाया है ऐसे हेमांगद आदि राजकुमार शत्रुओंपर अग्नि वर्षाके समान बाणोंकी वर्षा करने लगे ॥१८८-१८६॥ वे अनन्तसेन आदिके बाणोंका समूह रोककर वायुके समान वेगवाले रथोंको रणरूपी समुद्रमें जहाजोंके समान दौड़ाने लगे ॥१९०॥ वे रथोंके घोड़े दोनों सेनाओं सम्बन्धी शस्त्रोंके संघट्टनसे उत्पन्न हुई अग्निपर पड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी मनुष्य दूसरेका तेज कैसे सह सकता है ? ॥ १९१॥ उस युद्ध में दोनों सेनाओंके शस्त्र एक दूसरेको खण्ड-खण्ड कर देते थे, एक भी शस्त्र शत्रुओं तक नहीं पहुँचने पाता था सो ठीक ही है क्योंकि उनकी अस्त्रोंके चलानेकी कुशलता आश्चर्य करनेवाली थी ॥१९२॥ आश्चर्य है कि उन योद्धाओंके युद्ध करते हुए न तो कोई मरा था, न किसीको घाव लगा था न किसीकी जीत हुई थी और न किसीकी हार ही हुई थी, और तो क्या उनका वह युद्ध भी युद्ध-सा- नहीं मालूम होता था ।।१९३॥ इस प्रकार बहुत समय तक युद्ध करके भी वे एक दूसरेको जीत नहीं सके थे सो ठीक ही है क्योंकि उन दोनों सेनाओंमें जयकुमारके सिवाय और किसीको विजय प्राप्त होना दुर्लभ था ॥१९४॥ उस समय यह सब देखकर मन ही मन हँसते हुए जयकुमारने चक्रवर्तीके पुत्र-अर्ककीर्तिकी सब सेनाको लीलापूर्वक ही बाणोंसे ढक दी ॥१९५॥ अपनी सेनाको चेष्टारहित देखकर चक्रवर्तीका पुत्र-अर्ककीर्ति अपने नेत्रोंकी कान्तिसे लाल कमलके दलको कान्तिको जीतता हुआ अर्थात् क्रोधसे लाल-लाल आँखें करता हुआ कहने लगा कि आज शत्रुकी जीत नहीं हो सकती, मेरी ही जीत होगी, मैं युद्ध में जयकुमारको मारकर संसारमें कल्पान्त काल तक टिकनेवाला शद्ध यश स्थापित करूंगा तथा आज ही बढ़ते हए नाथ
१ दिशः । 'दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः'। इत्यभिधानात् । २ रथिनः । ३ रणाङ्गणे अभिमुखं समागत्य मुख्यताम् । ४ न गच्छन्ति स्म। ५ वायुवेगिनः । ६ अग्निम् । ७ जग्मुः । ८ अश्वाः । ९ अन्यत् । १० एकं शस्त्रमपि । ११ जयकुमारात् । १२ अभिशय्येत्यर्थः । १३ न । मे नो जयः इति दुनिः । १४ जयकुमारम् । १५ विनाश्य । अविनाश्येति दुर्ध्वनिः । १६ जयस्य लक्ष्मीः इति दुर्ध्वनिः । १७ सुखमिति दुर्ध्वनिः । 'आ०' प्रती असुखमिति दुर्ध्वनिः ।