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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व असिसंघनिष्ठ्यतविस्फुलिङ्गो रणेऽनलः । भीषणे शरसंवाते व्यदीपिष्ट' धराचिते ॥१६६॥ . वाजिनः प्राक्कशाघातादधावन्ताभिसायकम् । नियन्ते न सहन्ते हि परिभूतिं सतेजसः ॥१६७॥ स्थिताः पश्चिमपादाभ्यां बद्धामर्षाः परस्परम् । पति केचिदिवावन्तो युध्यन्ते स्म चिरं हयाः॥१६८॥ समुद्धतास्र संपृक्तलसल्लोलासितकैः । नमस्तरुरमाद् भूयस्तदा पल्लवितो यथा ॥१६९॥ पतितान्यसिनिर्घातात् सुदूरं स्वामिनां क्वचित् । शून्यासनाः शिरांस्युच्चैरन्वेष्टुं वा भ्रमन्हयाः ॥१७॥ पन् विशृङ्गान्मत्वाऽश्वान् कृपया कोऽपि नावधीत् । ते "स्वदन्तखुरैरेव क्रुद्धाः प्रानन्'पररपस्म् ॥ १२वंशमात्रावशिष्टाङ्गै मण्डलागैश्चिरं क्रुधा । लोहदण्डैरिवाखण्डैध/रा युयुधिरे धुरि ॥१७॥ 1"शिरःप्रहरगेनान्यो "पश्यन्नान्ध्यं प्रकुर्वता । सर्वरोगसिराविद्धो दृष्ट्वा पश्चादयुद्ध सः ॥१७३॥ हयान् प्रतिष्कशीकृत्य धनुस्तकपिशीर्षकम् । अवुध्यत पुनः सुष्टु तदा द्विगुणयद्रणम् ॥१७४॥ जयोऽयात् सानुजस्तावदाविष्कृत्य यमाकृतिः । कण्ठीरवमिवारुह्य हयमस्युद्यतः क्रुधा ॥१५॥
वाहयन्तं तमालोक्य कल्पान्तज्वालिभीषणम् । विवेश विद्विडश्वाली वेलेव स्वबलाम्बुधिम् ॥ से भयंकर हो रहा था ॥१६३॥ उस युद्ध में पृथिवीपर जो भयंकर बाणोंका समूह पड़ा हुआ था उसमें तलवारोंकी परस्परकी चोटसे निकले हुए फुलिंगोंसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी ॥१६६॥ घोड़े कोड़ोंकी चोटके पहले हो बाणोंके सामने दौड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी पुरुष मर जाते हैं परन्तु पराभव सहन नहीं करते ॥१६७।। परस्पर एक दूसरेपर क्रोधित हो पिछले पैरोंसे खड़े हुए कितने ही घोड़े चिरकाल तक इस प्रकार युद्ध कर रहे थे मानो अपने स्वामीकी रक्षा ही कर रहे हों ।।१६८॥ उस समय ऊपर उठायी हुई और रुधिरसे रंगी हुई तलवाररूपी चंचल पत्तोंसे आकाशरूपी वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उसपर फिरसे नवीन पत्ते निकल आये हों ॥१६६॥ कहींपर खाली पीठ लिये घोड़े इस प्रकार दौड़ रहे थे मानो तलवारकी चोटसे बहुत दूर पड़े हुए अपने स्वामियोंके शिर ही खोज रहे हों ॥१७०॥ घोड़ोंको बिना सींगके पशु मानकर दयासे कोई नहीं मारता था परन्तु वे क्रोधित होकर दाँत और खुरोंसे एक दूसरको मारते थे ॥१७१॥ उस युद्ध में कितने ही योद्धा क्रोधित होकर अखण्ड लोहेके डण्डेके समान जिनमें बाँसमात्र ही शेष रह गया है ऐसी तलवारोंसे चिरकाल तक युद्ध करते रहे थे ॥१७२।। अन्य कोई योद्धा, अन्धा करनेवाली 'शिरकी चोटसे यद्यपि कुछ देख नहीं सक रहा था तथापि गलेकी पीछेकी नसोंसे शिरको जुड़ा हुआ देखकर वह फिर भी युद्ध कर रहा था ॥१७३।। उस समय कितने ही योद्धा घोड़ोंकी सहायता ले कपिशीर्षक नामक धनुषोंसे युद्धको द्विगुणित करते हुए अच्छी तरह लड़ रहे थे ॥१७४।। इतनेमें ही तलवार हाथमें लिये हुए जयकुमार अपने छोटे भाइयोंके साथ-साथ यमराज सरीखा आकार प्रकट कर और सिंहके समान घोड़ेपर सवार होकर क्रोधसे आगे बढ़ा ॥१७५॥ कल्पान्त कालकी अग्निके समान भयंकर जयकुमारको घोड़ेपर सवार हुआ देखकर शत्रुके घोड़ोंकी पंक्ति लहरके समान अपने सेनारूपी समुद्रमें जा घुसी ॥१७६॥ जिनपर पताकाएँ नृत्य कर रही हैं और वेगशाली घोड़े १ ज्वलति स्म । २ भूमावुपचिते । ३ आयुधस्याभिमुखम् । ४ बद्धक्रुधः । ५ रक्षन्तः । ६ युद्धन्ते - ल० । ७ तास्त्रस-ल०। ८ स्वामिरहितपृष्ठाः । ९ न हन्ति स्म । १० ते च दत्त-ल० । ११ घ्नन्ति स्म । १२ वेणु मात्रावशिष्टस्वरूपैः । १३ कौक्षेयक: 'कौक्षेयको मण्डलायः करवाल: कृपाणवत्' इत्यभिधानात् । १४ मस्तकघातेन । १५ किंचिदपि नालोकयन् । १६ गलस्य पश्चिमसिरान्तितः । १७ गलपश्चिमभागं करस्पर्शनालोक्य । १८ युयुधे । १९ सहायीकृत्य । 'प्रतिष्कश सहाये स्याद् वार्ताहरपरागयोः' इत्यभिधानात । २० चापविशेषः । धन्विन इत्यर्थः । २१ यमाकृतिम् ल । २२ उद्यतासिः सन् । २३ अश्वमारोहयन्तम् । २४ प्रलयाग्निवद्भयंकरम् । २५ शत्र वाजिसमूहः । २६ स्वसैन्यसोगरम् ।