Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 419
________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पव 'भूमिष्ठैर्निष्ठुरं क्षिप्ताद्विष्टानुत्कृष्य यष्टयः । ययुर्दूरं दिवं दूतीदेशीया दिव्ययोषिताम् ॥ १४७ ॥ चक्रिणश्चक्रमे 'तन ततः कस्यचित्क्षतिः । 'चरकालचक्राभैर्बहवस्तत्र जघ्निरे ॥ १४८ ॥ ४०१ .११ समवेगैः” समं” मुक्तैः शरैः खचरभूचरैः । व्योम्न्यन्योन्यमुखालग्नैः स्थितं कतिपयक्षणे ॥ १४३ ॥ खभूचरशरैश्च्छने खे परस्पररोधिभिः । अन्योन्यावीभणात्तेषामभूद् रणनिषेधनम् ॥ १५० ॥ स्त्रास्त्रै:" शस्त्रैर्नभोगानां शरैश्चाबाधितं भृशम् । स्वसैन्यं वीक्ष्य खोत्क्षिप्त वीक्षणोप्रा शुशुक्षणिः " ॥ १५१ ॥ सद्यः संहारसंक्रुद्धसमवर्तिसमो जयः । प्रारब्ध' योद्धुं वज्रेण वज्रकाण्डेन वज्रिवत् ॥ १५२ ॥ निर्जिताशनिनिर्घोषजयज्याघोषभीलुकाः" । चीपसायकचेतांसि प्राक्षिपन् सह शत्रवः ॥ १५३ ॥ चापमाकर्णमाकृष्य ज्यानिवेशितसायकः । लघुसंधानमोक्षः सोऽवेक्ष्य विध्यशिव क्षणम् ॥ १५४ ॥ न मध्ये न शरीरेषु दृष्टास्तयोजिताः शराः । दृष्टास्ते केवलं भूमौ सत्रणाः पतिताः परे ॥ १५५ ॥ निमीलयन्तश्चक्षूंषि ज्वलयन्तः शिलीमुखाः । मुखानि ककुभां वभ्रुः "खादुल्कालीविभीषणाः ॥१५६॥ २३ २४ पापी हो नीचा मुख कर पृथिवीभूमिगोचरियों द्वारा निर्दयता के के द्वारा छोड़े हुए बाण शत्रुओंका रक्त पीने और मांस खानेसे के नीचे जा रहे थे - जमीनमें गड़ रहे थे || १४६ | इसी प्रकार साथ छोड़े हुए बाण शत्रुओंको भेद कर आकाशमें बहुत दूर तक इस प्रकार जा रहे थे मानो देवांगनाओं की दासियाँ ही हों ॥ १४७ ॥ चक्रवर्तीका चक्र तो एक ही होता है उससे किसीकी हानि नहीं होती परन्तु उस युद्ध में अकाल चक्रके समान बहुत-से चक्रोंसे अनेक जीव मारे गये थे ।। १४८ ॥ विद्याधर और भूमिगोचरियोंके द्वारा एक साथ छोड़े हुए समान वेगवाले बाण आकाशमें एक दूसरेके मुखसे मुख लगाकर कुछ देर तक ठहर गये थे || १४९ ॥ परस्पर एक दूसरेको रोकनेवाले विद्याधर और भूमिगोचरियोंके बाणोंसे आकाश ढक गया था और इसीलिए एक दूसरेके न दिख सकनेके कारण उनका युद्ध बन्द हो गया था ।। १५० ।। अपने और शत्रुओंके शस्त्रों तथा विद्याधरोंके बाणोंसे अपनी सेनाको बहुत कुछ घायल हुआ देखकर नेत्ररूपी भयंकर अग्निको आकाशकी ओर फेंकनेवाला और संहार करनेके लिए कुपित हुए यमराजकी समानता धारण करनेवाला जयकुमार इन्द्रकी तरह वज्रकाण्ड नामके धनुषसे युद्ध करनेके लिए तैयार हुआ ।। १५१ - १५२ ॥ वज्रकी गर्जनाको जीतनेवाले जयकुमारके धनुषकी डोरीके शब्द मात्रसे डरे हुए कितने ही शत्रुओंने धनुष, बाण और हृदय - सब फेंक दिये । भावार्थं-भयसे उनके धनुष-बाण गिर गये थे और हृदय विक्षिप्त हो गये थे ।। १५३ ॥ ॥ कान तक धनुष खींचकर जिसने डोरीपर बाण रखा है और जो बड़ी शीघ्रतासे बाणोंको रखता तथा छोड़ता है ऐसा जयकुमार क्षण भरके लिए ऐसा जान पड़ता था मानो प्रहार ही नहीं कर रहा हो अर्थात् बाण चला ही नहीं रहा हो ॥ १५४ ॥ जयकुमारके द्वारा चलाये हुए बाण न बीचमें दिखते थे, और न शरीरमें ही दिखाई देते थे, केवल घावसहित जमीनपर पड़े हुए शत्रु ही दिखाई देते थे ॥ १५५ ॥ जो देखनेवालोंके नेत्र बन्द कर रहे हैं, सबको जला रहे हैं और उल्काओंके समूहके समान भयंकर हैं ऐसे जयकुमारके बाणोंने दिशाओंके मुख ढक लिये थे 1 १ भूमौ स्थितैः । २ शत्रून् । ३ उद्भिद्य । ४ बाणाः । ५ दूतीसदृशाः । ६ - मेकान्तं न ल० । ७ चक्रात् । ८ समन्तात् कृतान्तसमूहसमानैः । ९ हताः । १० उभयत्रापि समानजवैः । ११ युगपत् । १२ खेचर-ल०, अ०, प०, स०, इ० । १३ - क्षणात् ल०, अ०, प०, स०, इ० । १४ परस्परावलोकनाभावात् । १५ आत्मीयानात्मीयैः । स्वास्त्रः अ० । १६ अग्निः । १७ संहारार्थं कुपितयमसदृश: । १८ उपक्रान्तवान् । १९ भीरवः । २० त्यक्तवन्तः । २१ दृष्टः । २२ शरान्नमुच्चन्निव । २३ वेष्टयन्ति स्म । २४ गगनान्निर्गच्छन्त इत्यर्थः । २५ उल्कासमूहभीकराः । ५१

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