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आदिपुराणम् प्रगुणा मुष्टि संवाह्या दूरं दृष्टयनुवर्तिनः । गवेष्टं साधयन्ति स्म सद्भुत्या इव सायकाः ॥१२५॥ प्रयोज्याभिमुखं तीक्षणान् बाणान् परशरान्प्रति । तत्रैव पातयन्ति स्म धानुष्काः सा हि धार्धियाम् ॥ जाताश्चापताः केचिदन्योन्यशरखण्डने । ब्यापृताः श्लाषिताः पूर्व रणे किंचित्करोपमाः ॥१२॥ हस्त्यश्वरथपत्त्यौवमुद्भिद्यास्पष्टलक्ष्यवत् । शराः पेतुः स्वपातमवास्ता दृढमुष्टिभिः ॥१२८॥ पूर्व विहितसन्धानाः स्थित्वा किंचिच्छरासने । यानमध्यास्य मध्यस्था १ द्वैधीभावमुपागता ॥ विग्रह हतशक्तित्वादगत्या शत्रुसंश्रयाः। बाणा गुणितषाड्गुण्या इव सिद्धि प्रपेदिरे ॥१३०॥
व्यभिचारिणी स्त्री अपना पति छोड़ किसी परपुरुषको खोजकर वश कर लेती है उसी प्रकार विद्याधरोंके खूनको बहुत वर्षा होने और गृद्ध, पक्षीरूपी अन्धकारका समूह फैल जानेपर बाणोंकी पंक्ति अपने स्वामीको छोड़ खोज-खोजकर शत्रुओंको वश कर रही थी ॥१२४॥ अथवा वे बाण अच्छे नौकरों के समान दूर-दरतक जाकर इष्ट कार्योंको सिद्ध करते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे नौकर प्रगण अर्थात् श्रेष्ठ गणोंके धारक अथवा सीधे होते हैं उसी प्रकार बाण भी प्रगुण अर्थात् सीधे अथवा श्रेष्ठ डोरीसे सहित थे, अच्छे नौकर जिस प्रकार मुट्ठियोंसे दिये हुए अन्नपर निर्वाह करते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मुट्ठियों-द्वारा चलाये जाते थे और अच्छे नौकर जिस प्रकार मालिककी दृष्टिके अनुसार चलते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मालिककी दृष्टिके अनुसार चल रहे थे ॥१२५॥ धनुषको धारण करनेवाले योद्धा जहाँ-जहाँ शत्रुओंके बाण थे वहीं-वहीं देखकर अपने पैने बाण फेंक रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओंकी वैसी ही बुद्धि होती है ।।१२६॥ जो बाण एक दूसरेके बाणोंको तोड़नेके लिए चलाये गये थे, धारण किये गये थे अथवा उस व्यापार में लगाये गये थे वे युद्ध में नौकरोंके समान सबसे पहले प्रशंसाको प्राप्त हुए थे ॥१२७॥ मजबूत मुट्टियोंवाले योद्धाओंके द्वारा छोड़े हुए बाण अस्पष्ट लक्ष्यके समान दिखाई नहीं पड़ते थे और हाथी. घोडे. रथ तथा पियादोंके समहको भेदन कर अपने पड़नेसे स्थानपर ही जाकर पड़ते थे ।।१२८॥ जिस प्रकार सन्धि विग्रह आदि छह गुणोंको धारण करनेवाले राजा सिद्धिको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी सन्धि आदि छह गुणोंको धारण कर सिद्धि को प्राप्त हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार राजा पहले सन्धि करते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पहले डोरीके साथ सन्धि अर्थात् मेल करते थे, जिस प्रकार राजा लोग अपनी परिस्थिति देखकर कुछ समय तक ठहरे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी धनुषपर कुछ देर तक ठहरे रहते थे, जिस प्रकार राजा लोग युद्धके लिए अपने स्थानसे चल पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी शत्रुको मारनेके लिए धनुषसे चल पड़ते थे, जिस प्रकार राजा लोग मध्यस्थ बनकर द्वैधीभावको प्राप्त होते हैं अर्थात् भेदनीति-द्वारा शत्रुके संगठनको छिन्नभिन्न कर डालते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मध्यस्थ ( शत्रुके शरीरके मध्य में स्थित ) हो द्वैधीभावको प्राप्त होते थ अथात् शत्रुकं टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे और अन्तमें राजा लोग जिस प्रकार युद्ध करनेकी
१ अवक्राः । २ मुष्टिना संवाह्यन्ते गम्यन्तै मुष्टिसंवाह्याः । आज्ञावशवतिनश्च । ३ नयनरनुवर्तमानाः आलोकनमात्रेण प्रभोरभिप्रायं ज्ञात्वा कार्यकराश्च । ४ यत्र शत्रुशराः स्थितास्तत्रैव । ५ सैव परशरखण्डनरूपा । ६ बुद्धीनां मध्ये । धीद्विषाम् ल० । ७ बाणाः । ८ किङ्करसमानाः । ९ अस्पृष्टलक्ष्यवत् । १० स्वयोग्यपतनस्थानं गत्ववेत्यर्थः । ११ क्षिप्ताः । १२ कृतसंयोजनाः कृतसन्धयश्च । १३ चापे क्षेत्रे च । १४ गमनमध्यास्य । १५ मध्यस्थाः सन्तः । १६ द्विधाखण्डनत्वम्, पक्षे उभयत्राश्रयत्वम् । १७ वविक्रमभावे। अथवा शरीरे । १८ अभ्यस्त ।