Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 409
________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ३९१ सर्वमेतत् समाकर्ण्य बुद्धिं कर्मानुसारिणीम् । स्पष्टयन्निव दुर्बद्धिरिति प्रत्याह भारतीम् ॥१५॥ अस्ति स्वयंवरः पन्थाः परिणीती चिरन्तनः । पितामह कृतो मान्यो वयोज्येष्टस्त्वकम्पनः ॥ ६॥ किन्तु सोऽयं जयस्नेहात्तस्योत्कर्ष चिकीर्षुकः । स्वसुतायाश्च सौभाग्यप्रतीतिप्रविधित्सुकः ॥५७॥ सर्वभूपालसंदोहसमाविर्भावितोदयात् । स्वयं चक्रीयितुं चैव व्यधत्त कपटं शठः ॥१८॥ प्राक्समर्थितमन्त्रेण प्रदायास्मै स्वचेतसा । कृतसंकेतया माला सुतयाऽऽरोपिता मृषा ॥५॥ युगादौ कुलवृद्धन मायेयं संप्रवतिता । मयाद्य यापेक्ष्येत कल्पान्ते नैव वार्यते ॥६॥ न चक्रिणोऽपि कोपाय स्यादन्यायनिषेधनम् । प्रवर्तयत्यसौ दण्डं मय्यप्यन्यायवर्तिनि ॥६१॥ जयोऽप्येवं समुत्सितस्तत्पटेन च मालया। प्रतिस्वं लब्धरन्ध्रो मां करोत्या रम्भकम्पुरा ॥६॥ "समूलतूलमुच्छिद्य सर्वद्विषममुं युधि । अनुरागं जनिष्यामि राजन्यानां मयि स्थिरम् ॥६३॥ द्विधा भवतु वा मा वा बलं ते न किमाशुगाः । माला प्रत्यानयिष्यन्ति जयवक्षो विभिद्य मे ॥६॥ नाहं सुलोचनार्थ्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयम् । परासुरधुनैव स्यात् किं में विधवया त्वया ॥६॥ अनवद्यमति मन्त्रीका वचनरूपी जल यद्यपि नीतिरूपी लताको बढ़ानेवाला था तथापि उसने तपे हुए तेलके समान अर्ककीतिके चित्तको और भी अधिक क्षोभित कर दिया था ॥५४॥ यह सब सुनकर 'बुद्धि कर्मों के अनुसार ही होती है,' इस बातको स्पष्ट करता हुआ वह दुर्बुद्धि इस प्रकार वचन कहने लगा ॥५५॥ मैं मानता हूँ कि विवाहकी विधियों में स्वयंवर ही पुरातन मार्ग है और यह भी स्वीकार करता हूँ कि हमारे पितामह भगवान् वृषभदेवके द्वारा स्थापित होने तथा वयमें ज्येष्ठ होनेके कारण अकम्पन महाराज मेरे मान्य हैं परन्तु वह जयकुमारपर स्नेह होनेसे उसीका उत्कर्ष करना चाहता है और सबपर अपनी पुत्रीके सौभाग्यकी प्रतीति करना चाहता है। समस्त राजाओंके समहके द्वारा प्रकट हए बड़प्पनसे अपने आपको चक्रवर्ती बनानेके लिए ही उस मूर्खने यह कपट किया है ॥ ५६-५८॥ 'यह कन्या जयकुमारको ही देनी है' ऐसी सलाह अकम्पन पहले ही कर चका था और उसी सलाहके अनुसार अपने जयकुमारके लिए कन्या दे भी चका था परन्तु यह सब छिपाने के लिए जिसे पहले ही संकेत किया गया है ऐसी पूत्रीके द्वारा उसने यह माला झठमठ ही डलवायी है ॥५९।। यगके आदिमें उच्चकुलीन अकम्पनके द्वारा की हुई इस मायाकी यदि आज मैं उपेक्षा कर दूं तो फिर कल्पकालके अन्त तक भी इसका निवारण नहीं हो सकेगा ।। ६० ॥ अन्यायका निराकरण करना चक्रवर्तीके भी क्रोधके लिए नहीं हो सकता क्योंकि जब मैं अन्याय में प्रवत्ति कर बैठता है तब वे मुझे भी तो दण्ड देते हैं । भावार्थ-चक्रवर्ती अन्यायको पसन्द नहीं करते हैं, और मैं भी अन्यायका ही निराकरण कर रहा हूँ इसलिए वे मेरे इस कार्यपर क्रोध नहीं करेंगे ॥६१।। यह जयकुमार भी पहले वीरपट्ट बाँधनेसे और अव मालाके पड़ जानेसे बहुत ही अभिमानी हो रहा है । यह छिद्र पाकर पहलेसे ही मेरे लिए कुछ-न-कुछ आरभ्भ करता ही रहता है ॥६२॥ यह सबका शत्रु है इसलिए युद्ध में इसे आमूलचूल नष्ट कर सब राजाओंका स्थिर प्रेम अपने में ही उत्पन्न करूँगा ॥६३॥ सेना फूटकर दो भागोंमें विभक्त हो जाय अथवा न भी हो, उससे मुझे क्या ? मेरे बाण ही जयकुमारका वक्षःस्थल भेदन कर वरमालाको ले आवेंगे ।।६४।। मैं सुलोचनाको भी नहीं चाहता क्योंकि सबसे ईर्ष्या करनेवाला यह जयकुमार मेरे बाणोंसे अभी १ विवाहे। २ अभ्युदयं प्राप्यमाश्रित्य । ३ चक्रीवाचरितुम् ।। ४ मायावी। ५ दत्त्वा। ६ अकम्पनेन । ७-पेक्षेत ल०। ८ -प्येनं ल० । ९ गर्वितः । १० वीरपट्टेन । ११ प्राप्तावसरः । १२ व्यापारम् । १३ कारणसहितम् । १४ शराः । १५ मत्सरवान् । १६ मम बाणैः । १७ गतप्राणः । 'परासुप्राप्तपंचत्वपरेतप्रेत. संस्थिताः ।' इत्यभिधानात् ।

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