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आदिपुराणम् विना चक्राद् विना रत्न ग्येयं श्रीस्त्वया तदा । जथाले मानुषी सिद्धिदैवी पुण्योदयाद्यथा ॥४४॥ तृणकल्पोऽपि संवाह्यस्तव नीतिरियं कथम् । नाथेन्दुवंशावुच्छेद्यो लक्ष्म्याः साक्षाद जायितौ ॥४५॥ बन्धुभृत्यक्षयाभूयस्तुभ्यं चयपि कुप्यति । अधर्मश्चायुगस्थायी त्वया स्यात् संप्रवर्तितम् ॥४६॥ परदाराभिलाषस्य प्राथम्यं मा वृथा कृथाः । अवश्यमाहृताप्येषा न कन्या ते भविष्यति ॥४७॥ सप्रतापं यशः स्थास्नु जयस्य स्यादहर्यथा। तब रात्रिरिवाकीर्तिः स्थायिन्यत्र मलीमसा ॥४८॥ सर्वमेतन्ममैवेति मा मस्था साधनं युधः । बहवोऽप्यन्त्र भूपालाः सन्ति तत्पक्षपातिनः ॥४९॥ पुरुषार्थत्रयं पुम्भिर्दुष्प्रापं तत्त्वयाऽर्जितम् । न्यायमार्ग समुल्लध्य वृथा तत्किं विनाशयः ॥५०॥ अकम्पनस्य सेनेशो जयः प्रागिव चक्रिणः । वीरलक्ष्यास्तुलारोह मुधा त्वं किं विधास्यसि ॥५१॥ ननु न्यायेन बन्धोस्ते बन्धुपुत्री समर्पिता । उत्सवे का पराभूतिरक्षमात्र पराभवः ॥५२॥ कन्यारत्नानि सन्त्येव बहन्यन्यानि भूभुजाम् । इह तानि सरत्नानि सर्वाण्यद्यन यामि ते ॥५३॥
इति नीतिलतावृद्धिविधाय्यपि वचः पयः । 'व्यधात् तच्चेतसः क्षोभं तप्ततैलस्य वा भृशम् ॥५४॥ राजाओंको जानकर उसका भी सन्मान करना चाहिए फिर भला जिसका पराक्रम देखा जा चुका है और जिसने अत्यन्त असाध्य कार्यको भी सिद्ध कर दिया है उसकी तो बात ही क्या है ? ॥४३। आगे चलकर जिस समय बिना चक्र और बिना रत्नोंके यह लक्ष्मी तुम्हारे उपभोग करने योग्य होगी उस समय तुम्हारी दैवी सिद्धि जिस प्रकार पुण्य कर्मके उदयसे होगी उसी प्रकार तुम्हारी मानुषी अर्थात् मनुष्योंसे होनेवाली सिद्धि जयकुमारसे ही होगी ॥ ४४ ।। जब कि तृणके समान तुच्छ पुरुषकी भी रक्षा करनी चाहिए यह आपकी नीति है तब राज्य लक्ष्मीके साक्षात् भुजाओंके समान आचरण करनेवाले नाथ वंश और सोम वंश उच्छेद करने योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥४५।। इन भाइयोंके समान सेवकोंका नाश करनेसे चक्रवर्ती भी तुमपर अधिक क्रोध करेंगे
और युगके अन्त तक टिकनेवाला यह अधर्म भी तुम्हारे-द्वारा चलाया हुआ समझा जायगा ॥४६।। तुम्हें व्यर्थ ही परस्त्रीकी अभिलाषाका प्रारम्भ नहीं करना चाहिए क्योंकि यह निश्चय है, यह कन्या जबरदस्ती हरी जाकर भी तुम्हारी नहीं होगी ।। ४७ ।। जयकुमारका प्रताप सहित यश दिनके समान सदा विद्यमान रहेगा और तुम्हारी मलिन अकीति रात्रिके समान सदा विद्यमान रहेगी ।। ४८ ॥ ये सब राजा लोग युद्ध में मेरी सहायता करेंगे ऐसा मत समझिए क्योंकि इनमें भी बहुत-से राजा लोग उनके पक्षपाती हैं ॥ ४९ ॥ जो धर्म अर्थ और कामरूप तीन पुरुषार्थ पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ हैं वे तुझे प्राप्त हो गये हैं इसलिए अब न्यायमार्गका उल्लंघन कर उन्हें व्यर्थ ही क्यों नष्ट कर रहे हो ॥ ५० ॥ यह जयकुमार जिस प्रकार पहले चक्रवर्तीका सेनापति बना था उसी प्रकार अब अकम्पनका सेनापति बना है तुम व्यर्थ ही वीरलक्ष्मीको तुलापर आरूढ़ क्यों कर रहे हो । भावार्थ - वीरलक्ष्मीको संशयमें क्यों डाल रहे हो ॥ ५१॥ निश्चयसे तेरे एक भाईकी पुत्री तेरे दूसरे भाईके लिए न्यायपूर्वक समर्पण की गयी है, ऐसे उत्सवमें तुम्हारा क्या तिरस्कार हुआ ? हाँ, तुम्हारी असहनशीलता ही तिरस्कार हो सकती है ? भावार्थ - हितकारी होनेसे जिस प्रकार जयकुमार तुम्हारा भाई है उसी प्रकार अकम्पन भी तुम्हारा भाई है। एक भाईकी पुत्री दूसरे भाईके लिए न्यायपूर्वक दी गयी है इसमें तुम्हारा क्या अपमान हुआ? हाँ, यदि तुम इस बातको सहन नहीं कर सकते हो तो यह तुम्हारा अपमान हो सकता है ॥ ५२ ।। सुलोचना सिवाय राजाओंके और भी तो बहुत-से कन्यारत्न हैं, रत्नालंकार सहित उन सभी कन्याओंको मैं आज तुम्हारे लिए यहाँ ला देता हूँ ।। ५३ ।। इस प्रकार १ तव। २ पुरुषकृता। ३ रक्षणीयः । ४ संप्रवर्तितः स०, ल०, अ०, ५०, इ०। ५ प्रथमत्वम् । ६ मा कार्षीः । ७ युद्धस्य । ८ तव । ९ असहमानता । १० प्रापयामि । ११ व्याधात् ल० ।