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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
३८९ सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रतिस्मृतिषु भाषितः । विवाह विधिभेदषु वरिष्टोहि स्वयंवरः ॥३२॥ यदि स्यात् सर्वसंप्रार्थ्या कन्यका पुण्यभाजनम् । अविरोधो व्यधाय्यत्र देवायत्तो विधिबुधैः ॥३३॥ मध्ये महाकुलीनेपु कंचिदेकमभीप्सितम् । सलक्ष्मीकमलक्ष्मीकं गुणितं गुणदुर्गतम् ॥३४॥ विरूपं रूपिणं चापि वृणीतेऽसौ विधेर्वशात् । न तत्र मत्सरः कार्यः शेषैायोऽयमीदृशः ॥३५॥ लभ्यते यदि केनापि न्यायो रक्ष्यस्त्वयैव सः । नेदं तवोचितं क्वापि पाता स्यात्पारिपान्थिकः ॥३६॥ भवत्कुलाचलस्योभौ नाथसोमान्वयौ पुरा । मेरोनिषधनीलो वा सत्पक्षौ पुरुणा कृतौ ॥३७॥ सकलक्षत्रियज्येष्टः पूज्योऽयं राजराजवत् । अकम्पनमहाराजो राजेव ज्योतिषां गणैः ॥३८॥ निर्विशेषं पुरोरेनं मन्यते भरतेश्वरः । पूज्यातिलङ्घनं प्राहुरुभय बाशुभावहम् ॥३९॥ पश्य तादृश एवान सोमवंशोऽपि कथ्यते । धर्मतीर्थ भवद्वंशाद दानतीर्थ'ततो यतः॥४०॥ पुरस्सरणमात्रेण श्लाघ्यं चक्रं विशां विभोः" । प्रायो दुस्साधसंसिद्धौ श्लाघते जयमेव सः ॥११॥ 'एतस्य दिग्जये सर्वेष्टमेवेह पौरुषम् । अनेनवः कृतः प्रेषः स्मर्तव्यो ननु स त्वया ॥४२॥
ज्ञात्वा "संभाव्यशौर्योऽपि स मान्यो भर्तृभिर्भटः । दृष्टसारः स्वसाध्येऽर्थे साधितार्थः किमुच्यते ॥४३॥ चलती है और पुराने न्यायमार्गकी रक्षा होती है ॥ ३१ ॥ विवाहविधिके सब भेदोंमें यह स्वयंवर ही श्रेष्ठ है । श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहा गया यह स्वयंवर ही सनातन ( प्राचीन ) मार्ग है ॥ ३२ ।। यदि पुण्यके पात्र स्वरूप किसी एक कन्याकी याचना सब मनुष्य करने लग जायें तो उस समय परस्परका विरोध दूर करने के लिए विद्वानोंने केवल भाग्यके अधीन होनेवाली इस स्वयंवर विधिका विधान किया है ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े कुलोंमें उत्पन्न हुए पुरुषोंके मध्य में वह कन्या भाग्यवश अपनी इच्छानुसार किसी एकको स्वीकार करती है चाहे वह लक्ष्मीसहित हो या लक्ष्मीरहित, गुणवान् हो या निर्गुण, सुरूप हो या कुरूप । अन्य लोगोंको इसमें ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह ऐसा ही न्याय है ॥ ३४-३५ ॥ यदि किसीके द्वारा इस न्यायका उल्लंघन किया जाय तो तुम्हें ही इसकी रक्षा करनी चाहिए इसलिए यह सब तुम्हारे लिए उचित नहीं है । क्या कभी रक्षक भी चोर या शत्रु होता है ॥ ३६ ॥ जिस प्रकार निषध और नील कुलाचल मेरुपर्वतके उत्तम पक्ष हैं, उसी प्रकार भगवान् आदिनाथने पहले नाथवंश और चन्द्रवंश दोनों ही आपके कुलरूपी पर्वतके उत्तम पक्ष अर्थात् सहायक बनाये थे ॥ ३७ ॥ जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त ज्योतिषी देवोंके समूहके द्वारा पूज्य है उसी प्रकार समस्त क्षत्रियोंमें बड़े महाराज अकम्पन भी भरत चक्रवर्तीके समान सबके द्वारा पूज्य हैं ॥ ३८ ॥ महाराज भरत इन अकम्पनको भगवान् वृषभदेवके समान ही मानते हैं इसलिए तुम्हें भी इनके प्रति नम्रताका व्यवहार करना चाहिए क्योंकि पूज्य पुरुषोंका उल्लंघन करना दोनों लोकोंमें अकल्याण करनेवाला कहा गया है ॥ ३९ ॥ और देखो यह सोमवंश भी नाथवंशके समान ही कहा जाता है । क्योंकि जिस प्रकार तुम्हारे वंशसे धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है उसी प्रकार सोमवंशसे दानतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है ॥ ४० ॥ चक्रवर्तीका चक्र रत्न आगे-आगे चलने मात्रसे प्रशंसनीय अवश्य है परन्तु कठिनाईसे सिद्ध होने योग्य कार्योंमें वे प्रायः जयकुमारकी ही प्रशंसा करते हैं ।। ४१ ॥ दिग्विजयके समय इसका पुरुषार्थ संसारमें सबने देखा था। उस समय इसने जो पराक्रम दिखाया था वह भी तुम्हें याद रखना चाहिए ।।४२॥ जिस योद्धामें शूरवीरपनेकी सम्भावना हो १ अतिशयेन वरः । २ कृतः । ३ - देकं समीप्सितम् ल०, म०, अ०, ५०, इ०, स० । ४ गुणदरिद्रम् । ५ रक्षकः । ६ सत्सहायौ। सत्पक्षती च । ७ चक्रिवत् । ८ चन्द्र इव । ९ समानम् । १० इहामुत्र च । ११ सोमवंशात् । १२ यतः कारणात् । १३ चक्रिणः । १४ चक्री । १५ जयस्य । १६ यः ल० । १७ बलानियोगः । १८ भाविशौर्य इत्यर्थः ।