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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
३८१ इति स्तुतात्मसौभाग्यभाग्यरूपादिसंभृता । जनैः स्वयंवरागारमागमद् गोमिनीव सा ॥२९९॥
परिभूतिर्द्विधा सा भाविनी केति वा तदा । प्रीतिशोकान्तरे केचिद् रसं राजकमन्वभूत् ॥३०॥ स्थित्वा महेन्द्र दत्तोऽपि रत्नमालाधरो धुरि । रथं प्रचोदयामास प्रतिविद्याधराधिपान् ॥३०१॥ दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योर्नमेश्च विनमः सुतौ । पतिः सुमतिरेषोऽयमितः सुविनमिः श्रियः ॥३०२॥ अन्येऽमी च खगाधीशा विद्याविक्रमशालिनः । पतिं वृणीष्व त्वं चैषु स्वेच्छामेकन पूरय ॥३०३॥ इति कञ्चुकिनिर्दिष्टं नामादाय पृथक पृथक् । कर्णेकृत्यात्ययात् सर्वान् रुचिश्चित्रा हि देहिनाम् ॥३०४॥ पश्चात् सर्वानिरीक्ष्यैषा कञ्चित्त विवरीषते । तथैवेति खगास्तस्थुः किं वाशानावलम्बते ॥३०॥ पश्चाज 'ग्लुर्मुखाब्जानि तद्रथाद् व्यकसन्पुरः । वेरिवोदये राज्ञां संसृतेः स्थितिरीदृशी ॥३०६॥
उच्चाद्वाऽदुवनिम्नममिभूमि'चरं रथः । कञ्चकी कथयामास नामभिस्तान्नुपस्तिदा ॥३०७॥ निराकृत्यार्ककादीन् साजेया जयमागमत् । हित्वा शेषान् द्वमांश्चतं मधौ मधुकरी यथा ॥३०॥ गृहीतप्रग्रहस्तन कञ्जुकीचित्तवित्तदा । वचो व्यापारयामास जयव्यावर्णनं प्रति ॥३०९ ॥
इस प्रकार लोग जिसकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे अपने सौभाग्य, भाग्य और रूप आदिसे भरो हुई वह सुलोचना लक्ष्मीके समान स्वयंवर भवनमें आ पहुँची ॥२६६॥ इस संसारमें पराभूति दो प्रकारकी है-एक पराभूति अर्थात् उत्कृष्ट सम्पद् और दूसरी पराभूति अर्थात् पराभवतिरस्कार, सो इन' दोनोंमें न जाने कौन सी पराभूति अथवा परा-भूति होनेवाली है ऐसा विचार करता हुआ राजाओंका समूह उस समय प्रेम और शोकके बीच किसी अव्यक्त रसका अनुभव कर रहा था ॥३०॥
रत्नोंकी मालाको धारण करनेवाला महेन्द्रदत्त नामका कंचुकी भी धुरापर बैठकर विद्याधर राजाओंकी ओर रथ चलाने लगा ।।३०१॥ और सुलोचनासे कहने लगा कि ये विजयार्धकी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीके राजा नमि और विनमिके पुत्र हैं। यह लक्ष्मीका स्वामी सुनमि हैं और यह इस ओर सुविनमि हैं ॥३०२॥ विद्या और पराक्रमसे शोभायमान ये और भी अनेक विद्याधरोंके अधिपति विराजमान हैं इनमें से त किसी एकको वर अर्थात पतिरूपसे स्वीकार कर और एक ही में अपनी इच्छा पूर्ण कर ॥३०३।। इस प्रकार कंचुकीने अलग-अलग नाम लेकर कुछ कहा था उसे कानमें डालकर-सुनकर वह सबको छोड़ती हुई आगे चली सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियोंकी रुचि अनेक प्रकारकी होती है।३०४।। यह कन्या सबको देखकर बादमें किसीको वरना चाहती है यह विचारकर विद्याधर लोग ज्योंके त्यों बैठे रहें सो ठीक ही है क्योंकि आशा किसका आश्रय नहीं लेती है ? ॥३०५॥ जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेसे कमल विकसित हो जाते हैं और अस्त होनेसे मुरझा जाते हैं उसी प्रकार राजाओंके मुखरूपी कमल सुलोचनाके रथ सामने आनेसे पहले तो प्रफुल्लित हुए किन्तु रथके चले जानेपर बादमें मरझा गये थे सो ठीक ही है क्योंकि संसारकी स्थिति ही ऐसी है ॥३०६॥ तदनन्तर वह रथ विद्याधरोंकी ऊँची भूमिसे नीचे भूमिगोचरियोंकी ओर उतरा, उस समय वह कंचुकी नाम ले लेकर राजाओंका निरूपण करता जाता था।॥३०७। जिस प्रकार वसन्तऋतमें कोयल सब वृक्षोंको छोड़कर आमके पास पहुँचती है उसी प्रकार वह अजेय सुलोचना अर्ककीर्ति आदि राजाओंको छोड़कर जयकुमारके पास जा पहुँची ॥३०८॥ उसी समय चित्तकी
१ पुण्य । २ लक्ष्मीः । ३ अवज्ञा सम्पच्च । पराभूति-ल०, म०, अ०, प०, स०, इ० । ४ अवज्ञासम्पदोः । ५ भविष्यत् । ६ कञ्चुको । ७ रथमुखे । ८ निजवाञ्छाम् । ९ अतिक्रान्तवती । १० वरितुमिच्छति । ११ म्लानान्यभवन् । १२ उन्नतप्रदेशात्तु । १३ अगमत् । १४ भूचराणामभिमुखम् । १५ धताश्वरज्जुः ।