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आदिपुराणम्
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योषितां मधूगण्डूषैर्नृपुरारावरञ्जितैः । कुर्वन् वामाङ्घ्रिभिश्चालमङ्घ्रिपानपि कामुकान् ॥ २७३॥ कौसुमं धनुरादाय वामेनारूढविक्रमः । चूतसूनं करेणोश्चैः परेण परिवर्तयन् ॥ २७४॥ वसन्तानुचरानीतनिःशेषकुसुमायुधः । जित्वा तदाखिलान् देशानध्यायात् कुसुमायुधः ॥ २७५॥ तदा पुरात् समागत्य कृती जितपुरन्दरः । समाविर्भूतसाम्राज्यो राज्य चिह्नपुरस्सरः ॥२७६॥ स्वलक्ष्मीव्याप्त सर्वांशः सुप्रभासहितः पतिः । स्वस्थात् " स्वयंवरागारं स्वोचितं " स्त्रजनैर्वृतः ॥ २७७ ॥ चित्रं महेन्द्रदत्ताख्यो देवदत्तं रथं पृथुम् । सज्जीकृतं समारोप्य कन्यामायात्तु कचुकी ॥ २७८ ॥ समस्तबलसन्दोहं सम्यक् सन्नाह्य" सानुजः । हेमाङ्गदो जितानङ्गः प्रीत्याऽयात् परितो रथम् ॥२७९॥ तूर्यध्वानाहतिप्रेङ्ख "हिक्कन्याकर्णपूरिका । संछन्नच्छत्र निश्छिद्रच्छायाच्छादितभास्करा ॥ २८०॥ लक्ष्मीः पुरीमिवायोध्यां चक्रिदिग्विजयागमे । शालां ' ' प्रविश्य राजन्यलोचनार्च्या सुलोचना ॥२८१ ॥ सर्वतोभद्रमारुह्य कञ्चुकीप्रेरिता नृपान् । न्यषिञ्चलोचनैर्लोलिनीलोत्पलदलैरिव ॥ २८२ ॥ चातका 'वादवृष्ट्या ते तद्दृष्ट्या तुष्टिमागमन् । आह्लादः कस्य वा न स्यादीप्सितार्थसमागमे । २८३ ।
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मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थलोंकी खाज खुजलानेसे टूटे हुए चन्दन वृक्षोंके निष्यन्दकी घनी सुगन्धिसे जो व्याप्त हो रहा है, कावेरी नदीके कमलोंके आस्वाद से हर्षित हुए पक्षियोंकी अल्हड़ क्रीड़ासे उछलती हुई जलकी बड़ी-बड़ी बूँदें ही जिसके मोतियोंके आभूषण हैं, जो विरहरूपी तीव्र अग्निको प्रज्वलित करनेवाला है और कोयल तथा भ्रमरोंके मनोहर शब्दोंसे जो वाचालित हो रहा है ऐसे दक्षिणके वायुको अनुकूल करता हुआ सब देशोंको जीतकर उस समय वहाँ आ पहुँचा था || २६९ - २७५ ।। उसी समय, जिसने अपनी शोभासे इन्द्रको भी जीत लिया है, जिसका साम्राज्य प्रकट है, ध्वजा आदि राज्यके चिह्न जिसके आगे-आगे चल रहे हैं, अपनी शोभासे जिसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, सुप्रभा रानी जिसके साथ हैं, और जो अपने कुटुम्बीजनों से घिरा हुआ अर्थात् परिवार के लोग जिसके साथ-साथ चल रहे हैं ऐसा पुण्यवान् राजा अकम्पन नगरसे आकर स्वयंवर मण्डप में अपने योग्य स्थानपर आ विराजमान हुआ ।।२७६ - २७७ ।। उसी समय महेन्द्रदत्त नामका कञ्चुकी चित्रांगददेवके द्वारा दिये हुए, आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले बहुत बड़े अलंकृत रथपर कन्याको बैठाकर लाया ||२७८|| कामको जीतनेवाला हेमांगद अपने छोटे भाइयोंसहित समस्त सेनाके समूहको अच्छी तरह सजाकर बड़े प्रेमसे कन्याके रथके चारों ओर चल रहा था || २७९ || जिसके आगे-आगे बजने - वाले नगाड़ोंके शब्दोंके आघातसे दिशारूपी कन्याओं के कर्णपूर हिल रहे थे, जिसपर अच्छी तरह लगे हुए छत्रकी छिद्ररहित छायासे सूर्य भी ढँक गया था, और जो राजाओंके नेत्रोंसे पूजी जा रही थी अर्थात् समस्त राजा लोग जिसे अपने नेत्रोंसे देख रहे थे ऐसी सुलोचनाने, चक्रवर्तीके दिग्विजयसे लौटनेपर जिस प्रकार लक्ष्मी अयोध्या में प्रवेश करती हैं उसी प्रकार स्वयंवर - शाला में प्रवेश किया और वहाँ वह सर्वतोभद्र नामक महलपर चढ़कर कंचुकीके द्वारा प्रेरित हो नीलकमलके दलके समान अपने चंचल नेत्रोंके द्वारा राजाओं को सींचने लगी ||२८०२८२।। जिस प्रकार चातक पक्षी मेघोंके बरसने से सन्तुष्ट होत े. उसी प्रकार सब राजा लोग सुलोचनाके देखनेसे ही सन्तुष्ट हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि अपने अभीष्ट पदार्थ के समागम
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१ अत्यर्थम् । : २ कुसुमनिर्मितम् । ३ वामहस्तेन । ४ माकन्दप्रसूनम् । ५ दक्षिणकरेण । ६ परिभ्रमयन् । ७ वसन्त एवानुचरो भृत्यस्तेन समानीत । ८ आजगाम ।९ अकम्पनः । १० सुखेन स्थितवतः । ११ निजोचितस्थाने । १२ आश्चर्ययुक्तम् । १३ विचित्राङ्गददेवेन वितीर्यम् । १४ सन्नद्धं कृत्वा । १५ चलत् । १६ स्वयंवरशालाम् । १७ सिञ्चति स्म । अयोजयदित्यर्थः । १८ इव । १९ नृपाः ।