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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व उपवासपरिश्रान्ता पुत्रिके स्वं प्रयाहि ते । शरणं पारणाकाल इति कन्यां व्यसर्जयत् ॥१७९॥ . तां विलोक्य महीपालो बालामापूर्णयौवनाम् । निर्विकारां सचिन्तः सन् तस्याः परिणयोत्सवे ॥१८॥ शुभे श्रुतार्थसिद्धार्थसर्वार्थ सुमतिश्रुतीन् । कोष्टादिमतिभेदान्वा दिने व्याहूय मन्त्रिणः ॥११॥ वृणते सर्वभूपालाः कन्यां नः कुलजीवितम् । ब्रत कस्मै प्रदास्यामो विमृश्येमां सुलोचनाम् ॥१८॥ इत्यप्राशीत्तदा प्राह श्रृतार्थः श्रुतसागरः । अत्र सद्वन्धुसंबन्धो जामाताऽत्र महान्वयः ॥१८३॥ "सर्वस्वस्य व्ययोऽत्राथ'जन्मराज्यफलं च नः । ततः संचित्यमेवैतत् कार्य नयविशारदः ॥१८४॥ बन्धवः स्युनृपाः सर्वे संबन्धश्चक्रवर्तिना । इक्ष्वाकुवंशवत्पूज्यो मववंशश्च जायते ॥१८५॥ कुलरूपवयोविद्यावृत्त श्रीपौरुषादिकम् । यद्वरेषु समन्वेष्यं सर्व तत्तत्र पिण्डितम् ॥ १८६॥ ततो नास्त्यत्र नश्चय दिगन्तव्याप्तकीर्तये । जितार्कमूर्तये देया कन्ये घेत्यर्ककीर्तये ॥१८७॥ सिद्वार्थोऽत्राह तत्सर्वमस्ति किं च पुराविदः । कनीयसोऽपि संबन्धं नेच्छन्ति ज्यायसा सह। ततः प्रतीतभूपालपुत्रा वरगुणान्विताः । प्रभञ्जनो रथवरो बलिर्वज्रायुधाह्वयः ॥१८९ ॥
पास गयी। राजाने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिये हुए शेषाक्षत लेकर स्वयं अपने मस्तकपर रखे तथा यह कहकर कन्याको विदा किया कि हे पुत्रि, तू उपवाससे खिन्न हो रही है, अब घर जा, यह तेरे पारणाका समय है ॥१७३-१७९॥ राजा पूर्ण यौवनको प्राप्त हुई उस विकारशून्य कन्याको देखकर उसके विवाहोत्सवको चिन्ता करने लगा ॥१८०॥ उसने किसी शुभ दिनको कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी और सम्भिन्नश्रोतृ इन चारों बुद्धि ऋद्धियोंके समान श्रुतार्थ, सिद्धार्थ, सर्वार्थ और सुमति नामके मन्त्रियोंको बुलाया ॥ १८१ । और पूछा कि हमारे कुलके प्राणस्वरूप इस कन्याके लिए सभी राजा लोग प्रार्थना करते हैं इसलिए तुम लोग विचार कर कहो कि यह कन्या किसको दो जाय ? ॥१८२॥ इस प्रकार पूछनेपर शास्त्रोंका समुद्र श्रुतार्थ नामका मन्त्री बोला कि इस विवाहमें सज्जन बन्धुओंका समागम होना चाहिए, जमाई बड़े कुलका होना चाहिए, इस विवाहमें बहुत-सा धन खर्च होगा और हम लोगोंको अपने जन्म तथा राज्यका फल मिलेगा इसलिए नीतिनिपुण पुरुषोंको इस कार्यका अच्छी तरह विचार करना चाहिए ॥१८३-१८४।। यदि यह सम्बन्ध चक्रवर्तीके साथ किया जाय तो सब राजा अपने बन्ध हो सकते हैं और आपका वंश भी इक्ष्वाकु वंशकी तरह पूज्य हो सकता है ।। १८५ ॥ कुल, रूप, वय, विद्या, चारित्र, शोभा और पौरुष आदि जो जो गण वरोंमें खोजना चाहिए वे उसमें इकटे हो गये हैं। इसलिए इसमें कुछ चर्चाकी आवश्यकता नहीं है जिसकी कीर्ति सब दिशाओं में फैल रही है और जिसने अपने तेजसे सूर्यके प्रतिबिम्बको भी जीत लिया है ऐसे चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिके लिए यह कन्या दी जाय ।। १८६१८७ ॥ इसी समय सिद्धार्थ मन्त्री कहने लगा कि आपका यह सब कहना ठोक है परन्तु पूर्व व्यवहारको जाननेवाले छोटे लोगोंका बड़ोंके साथ सम्बन्ध होना भी अच्छा नहीं समझते हैं ॥ १८८ ॥ इसलिए वरके गुणोंसे सहित प्रभंजन, रथवर, बलि, वज्रायुध, मेघेश्वर (जयकुमार) और भीमभुज आदि अनेक प्रसिद्ध राजपुत्र हैं जो एकसे एक बढ़कर वैभवशाली हैं तथा चतुर
१ गच्छ । २ तव । ३ गृहम् । 'शरणं गृहरक्षित्रोः' इत्यभिधानात् । ४ विवाह । ५ नामधेयान् । ६ कोष्ठबुद्धिबीजबुद्धिपदानुसारिसंभिन्नश्रोतृभेदानिव । ७ वृण्वते ल०, म०, प०, स०, इ०। प्रार्थयन्ते । ८ विचार्य । ९ पृच्छति स्म। १० धनस्य । ११ अथ वा जन्मनः फलं राज्यस्य फलम् । १२ मृग्यम् । १३ अर्ककोौं । १४ विचार्यम् । १५ इति प्राहेति संबन्धः । १६ -मस्तु ल०, म०, प० । १७ पूर्ववेदिनः । १८ अल्पस्य । १६ महता सह । ज्यायसां ल०, ब०।