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आदिपुराणम्
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मृगाङ्कस्य कलङ्कोऽयं मन्येऽहं कन्ययाऽनया । स्वकान्त्या निर्जितस्याभूद् रोगराजश्च चिन्तया ॥ १६८ ॥ सार्धं कुवलयेनेन्दुः सह लक्ष्म्या सरोरुहम् । तद्वक्त्रेण जितं व्यक्तं किमन्यन्नेह जीयते ॥ १६६ ॥ जलाब्जं जलवासेन स्थलाब्जं सूर्यरश्मिभिः । प्राप्तुं तद्वक्त्रजां शोभां मन्येऽद्यापि तपस्यति ॥ १७० ॥ शनैर्बालेन्दुरेखेव सा कलामिवर्द्धत । वृद्धास्तस्याः प्रवृद्धाया विधुभिः स्पर्धिनो गुणाः ॥ १७१ ॥ इति संपूर्णसर्वाङ्गशोभां शुद्धान्ववायजाम् । स्मरो जयभयाद्वैतां न 'तदाऽप्यकरोत् करे ॥ १७२ ॥ कारयन्ती जिनेन्द्रार्चाश्चित्रा" मणिमयीर्बहूः । तासां हिरण्मयान्येव विश्वोपकरणान्यपि ।।१७३ ।। तत्प्रतिष्टाभिषेकान्ते महापूजाः प्रकुर्वती । मुहुः स्तुतिभिरर्थ्याभिः स्तुवती भक्तितोऽर्हतः ॥१७४॥ ददती पात्रदानानि मानयन्ती' महामुनीन् । शृण्वती धर्ममाकर्ण्य भावयन्ती मुहुर्मुहुः ॥ १७५ ॥ आप्तागमपदार्थांश्च प्राप्तसम्यक्त्वशुद्धिका । अथ फाल्गुननन्दीश्वरेऽसौ भक्त्या जिनेशिनाम् ॥ १७६॥ विधायाष्टाहिक पूजामभ्यर्च्याच यथाविधि । कृतोपवासा तन्वङ्गी शेषां दातुमुपागता ॥ १७७॥ नृपं सिंहासनासीनं सोऽप्युत्थाय कृताञ्जलिः । तत्तशेषामादाय निधाय शिरसि स्वयम् ॥१७८॥
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लक्ष्मी के साथ-साथ कितनी-सी स्त्रियोंकी सृष्टि बाकी रही थी ? भावार्थ - इसने लक्ष्मी आदि उत्तम उत्तम स्त्रियों को जीत लिया था ॥ १६७ ॥ चन्द्रमाके बीच जो यह कलंक दिखता है उसे मैं ऐसा मानता हूँ कि इस कन्याने अपनी कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है इसीलिए मानो उसे चिन्ताके कारण क्षयरोग हो गया हो ।। १६८ ।। उस सुलोचनाके मुखने चन्द्रमाके साथ कुवलय अर्थात् कुमुदको जीत लिया था और लक्ष्मी के साथ-साथ कमलको भी जीत लिया था फिर भला इस संसार में और रह ही क्या जाता है जो उसके मुखके द्वारा जीता न जा सके ।। १६९ ॥ मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके मुखकी शोभा प्राप्त करनेके लिए जलकमल जलमें रहकर और स्थलकमल सूर्य की किरणोंके द्वारा आजतक तपस्या कर रहा है ॥ १७० ॥ वह सुलोचना द्वितीयाके चन्द्रमाकी रेखाके समान कलाओंके द्वारा धीरे-धीरे बढ़ती थी और ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों चन्द्रमाकी कान्तिके साथ स्पर्धा करनेवाले उसके गुण भी बढ़ते जाते थे || १७१ ॥ इस प्रकार जो समस्त अंगों की शोभासे परिपूर्ण है और शुद्ध वंशमें जिसकी उत्पत्ति हुई है ऐसी उस सुलोचनाको कामदेव जयकुमारके भयसे युवावस्था में भी अपने हाथमें नहीं कर सका था ।। १७२॥
उस सुलोचनाने श्री जिनेन्द्रदेवकी अनेक प्रकारकी रत्नमयी बहुत-सी प्रतिमाएँ बनवायी थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण हीके बनवाये थे । प्रतिष्ठा तथा तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के बाद वह उन प्रतिमाओंकी महापूजा करती थी, अर्थपूर्ण स्तुतियोंके द्वारा श्री अर्हन्तदेवकी भक्तिपूर्वक स्तुति करती थी, पात्र दान देती थी, महामुनियोंका सन्मान करती थी, धर्मको सुनती थी तथा धर्मको सुनकर आप्त आगम और पदार्थोंका बार-बार चिन्तवन करती हुई सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको प्राप्त करती थी । अथानन्तर - फाल्गुन महीनेकी अष्टकामें उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेवकी अष्टाह्निकी पूजा की विधिपूर्वक प्रतिमाओं की पूजा की, उपवास किया और वह कृशांगी पूजाके शेषाक्षत देनेके लिए सिंहासनपर बैठे हुए राजा अकम्पन के
१ क्षयव्याधिः । २ मनोदुःखेन । ३ तपश्चरति । ४ अवयवैः । ५ विधुभास्पर्द्धिनो ल०, म० अ०, प०, इ०,
स० । ६ शुद्धवंशजातात् । ७ जयकुमारभयादिव । नाकरोत् । तस्याः कामविकारो नाभूदित्यर्थः । १४ अर्हद्देवान् । १५ पूजयन्ती । १६ शेषान् ल०, म०
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८ सुलोचनाम् । ९ यौवनकालेऽपि । १० करग्रहणं प्रतिमाः । १२ प्रतिमानाम् । १३ सदर्थयुक्ताभिः । । १७ - नादाय ल०, म० ।