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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व
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कथं च पालनीयास्ताः प्रजाश्चेत्तत्प्रपञ्चतः । पुष्टं गोपालदृष्टान्त मूरीकृत्य विवृण्महे ॥ १३८॥ गोपालको यथा यत्त्राद् गाः संरक्षत्यतन्द्रितः । क्ष्मापालश्च प्रयत्नेन तथा रक्षेन्निजाः प्रजाः ॥ १३९॥ तद्यथा यदि गौः कश्चिदपराधी' स्वगोकुले । तमङ्गच्छेदनायुदण्डस्तीबमयोजयन् ॥ ११०॥ पालयेदनुरूपेण दण्डेनैव नियन्त्रयन् यथा गोपस्तथा भूपः प्रजाः स्वाः प्रतिपालयेत् ॥ १४१ ॥ तीक्ष्णदण्डो हि नृपतिस्तीचमुजयेत्प्रजाः। ततो विरक्तप्रकृति जारेनमभूः प्रजाः ॥ १४२ ॥ यथा गोपालको मील पशुवर्ग स्वगोकुले पोषयमेव पुष्टः स्याद् गोपोषं प्राज्यगोधनः ॥१४३॥ तथैष नृपतिमीले "तन्त्रमात्मीयमेकतः पोषयन्पुष्टिमाप्नोति स्वे परस्मिंश्च मण्डले ॥ १४४॥ पुष्टो मॉलेन सम्ब्रेण यो हि पार्थिवकुञ्जरः स जयेत् पृथिवीमेनां सागरान्तामयत्रतः ॥ ४५॥ प्रभग्नचरणं किंचिद् गोङ्गव्यं चेत् प्रमादतः । गोपालस्तस्य संधानं कुर्याद् बन्धाद्युपक्रमैः ॥ १४६ ॥ बद्धाय च तृणाद्यस्मै दत्वा दाढये नियोजयेत् । उपद्रवान्तरेऽप्येवमाशु कुर्यात् प्रतिक्रियाम् ॥ १४७॥ यथा तथा नरेन्द्रोऽपि स्वयले प्राणितं मटम् । प्रतिकुर्याद्" "मिषम्बर्यातियोज्यौषधसंपदा ॥ १४८ ॥ कृतस्य चास्य जीवनादि प्रचिन्तयेत् । सत्येवं भृत्यवर्गोऽस्य शश्वदाप्नोति नन्दथुम् ॥ १४९ ॥ उस प्रजाका किस प्रकार पालन करना चाहिए यदि आप यह जानना चाहते हैं तो हम ग्वालियेका सुदृढ़ उदाहरण लेकर विस्तारके साथ उसका वर्णन करते हैं || १३८ || जिस प्रकार ग्वालिया आलस्यरहित होकर बड़े प्रयत्नसे अपनी गायोंकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको बड़े प्रयत्नसे अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए || १३९|| आगे इसीका खुलासा करते हैं- यदि अपनी गायोंके समूहमें कोई गाय अपराध करती है तो वह ग्वालिया उसे अंगछेदन आदि कठोर दण्ड नहीं देता हुआ अनुरूप दण्डसे नियन्त्रण कर जिस प्रकार उसकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए । १४० - १४१ ॥ यह निश्चय है कि कठोर दण्ड देनेवाला राजा अपनी प्रजाको अधिक उद्विग्न कर देता है इसलिए प्रजा ऐसे राजाको छोड़ देती है तथा मन्त्री आदि प्रकृतिजन भी ऐसे राजासे विरक्त हो जाते हैं ॥ १४२ ॥ | जिस प्रकार ग्वालिया अपनी गायोंके समूहमें मुख्य पशुओंके समूहकी रक्षा करता हुआ पुष्ट अर्थात् सम्पत्तिशाली होता है क्योंकि गायोंकी रक्षा करके ही यह मनुष्य विशाल गोधनका स्वामी हो सकता है, उसी प्रकार राजा भी अपने मुख्य वर्गकी मुख्य रूपसे रक्षा करता हुआ अपने और दूसरे राज्य में पुष्टिको प्राप्त होता है ।। १४३ - १४४ ॥ जो श्रेष्ठ राजा अपने-अप मुख्य बलसे पुष्ट होता है वह इस समुद्रान्त पृथिवीको बिना किसी यत्नके जीत लेता है || १४५ || यदि कदाचित् प्रमादसे किसी गायका पैर टूट जाय तो ग्वालिया उसे बाँधना आदि उपायोंसे उस पैरको जोड़ता है, गायको बाँधकर रखता है-बंधी हुई गायके लिए घास देता है और उसके पैरको मजबूत करनेमें प्रयत्न करता है तथा इसी प्रकार उन भी वह शीघ्र ही उनका प्रतिकार करता है || १४६ - १४७। की रक्षा करनेके लिए ग्वालिया प्रयत्न करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिए कि वह अपनी सेनामें घायल हुए योद्धाको उत्तम वैद्यसे औषधिरूप सम्पदा दिलाकर उसकी विपत्तिका प्रतिकार करे अर्थात् उसकी रक्षा करे || १४८ || और वह वीर जब अच्छा हो जावे तो राजाको उसकी उत्तम आजीविका कर देनेका विचार करना चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे भृत्यवर्ग सदा
पशुओंपर अन्य उपद्रवोंके आनेपर
जिस प्रकार अपने आश्रित गायों
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१ प्रपञ्चनम् ल० म० । प्रपञ्चते अ०, स० । २ समृद्धम् । ३ स्वीकृत्य । ४ अनालस्यः । ५ दोषी । ६ संयोजनमकुर्वन् । ७ नियमयन् । ८ उद्वेगं कुर्यात् । ९ त्यक्तानुरागप्रजापरिवारवन्तम् । १० गाः पोषयन्तीति गोपोषस्तम् । ११ बहुगोव्रजः । १२ बलम् । १३ एकस्मिन् स्थाने । १४ गोधनम् । १५ प्रतिकारं कुर्यात् । १६ वैद्यश्रेष्ठात् । १७ अधिकम् । १८ जीवितादिकम् । १९ आनन्दम् ।