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त्रिचत्वारिंशत्तमं
अथवा ' भवेदस्य विरसं नेति निश्चयः । धर्माग्रं ननु केनापि नादर्शि विरसं क्वचित् ॥ १६॥ गुरूणामेव माहात्म्यं यद्यपि स्वादु मद्वचः । तरूणां हि प्रभावेण यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७॥ निर्यान्ति हृदयाद् वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः । ते तत्र सँस्करिष्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥ १८ ॥ इदं शुश्रूषवो मन्याः कथितोऽर्थो जिनेश्वरैः । तस्याभिधायकाः शब्दास्तन्न निन्दास्त्र वर्तते ॥१९॥ दोषान् गुणान् गुणी गृह्णन् गुणान् दोषांस्तु दोषवान् । सदसज्ज्ञानयोश्वित्रमत्र माहात्म्यमीदृशम् ॥ २० ॥ गुणिनां गुणमादाय गुणी भवतु सज्जनः । असद्दोषसमादानाद् दोषवान् दुर्जनोऽद्भुतम् ॥२१॥ सज्जने दुर्जनः कोपं कामं कर्तुमिहार्हति । तद्वैरिणामनाथानां गुणानामाश्रय यतः ॥२२॥ यथास्वानुगमर्हन्ति सदा स्तोतुं कवीश्वराः । तथा निन्दितुमस्वानुवृत्तं कुकवयोऽपि माम् ॥ २३ ॥ कविरेव कवेत्ति कामं काव्यपरिश्रमम् । वन्ध्या स्तनंधयोत्पत्तिवेदनामिव नाकविः ॥ २४॥ गृहाणेहास्ति चेोषं स्वं धनं न निषिध्यते । खलासि प्रार्थितो भूयस्त्वं गुणान्न ममाग्रहीः ॥ २५ ॥
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कहने पर ही स्वादिष्ट भोजनकी इच्छा नहीं करते । भावार्थ - जिस प्रकार भोजन करनेवाले पुरुष प्रिय वचनों की अपेक्षा न कर स्वादिष्ट भोजनका ही विचार करते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा लोग मेरी योग्यताकी अपेक्षा न कर केवल धर्मका ही विचार करें - धर्म समझकर ही इसे ग्रहण करें ।। १५ ।। अथवा इस पुराणका अग्रभाग भी नीरस नहीं होगा यह निश्चय है क्योंकि धर्मका अग्रभाग कहीं किसी पुरुषने नीरस नहीं देखा ॥ १६ ॥ यदि मेरे वचन स्वादिष्ट हों तो इसमें गुरुओं का ही माहात्म्य समझना चाहिए क्योंकि जो फल मीठे होते हैं वह वृक्षोंका ही प्रभाव समझना चाहिए ॥ १७ ॥ चूंकि वचन हृदयसे निकलते हैं और मेरे हृदय में गुरु विद्यमान हैं इसलिए वे मेरे वचनों में अवश्य ही संस्कार करेंगे अर्थात् उन्हें सुधार लेंगे अतः मुझे इस ग्रन्थके बनाने में कुछ भी परिश्रम नहीं होगा || १८ || इस पुराणको सुननेकी इच्छा करनेवाले भव्य जीव हैं, इसका अर्थ जिनेन्द्रदेवने कहा है और उसके कहनेवाले शब्द हैं इसलिए इसमें निन्दा ( दोष ) नहीं है ॥ १९ ॥ गुणी लोग दोषोंको भी गुणरूपसे ग्रहण करते हैं और दोषी लोग गुणों को भी दोषरूपसे ग्रहण करते हैं, इस संसार में सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानका यह ऐसा ही विचित्र माहात्म्य है || २० | सज्जन पुरुष गुणी लोगोंके गुण ग्रहण कर गुणी हों यह ठीक है। परन्तु दुष्ट पुरुष अविद्यमान दोषोंको ग्रहण कर दोषी हो जाते हैं यह आश्चर्यकी बात है ॥ २१ ॥ इस संसारमें दुर्जन पुरुष सज्जनोंपर इच्छानुसार क्रोध करनेके योग्य हैं क्योंकि वे उन दुष्टों के शत्रु स्वरूप, अनाथ गुणोंके आश्रयभूत हैं । भावार्थ - चूँकि सज्जनोंने दुर्जनोंके शत्रुभूत, अनाथ दिया है इसलिए वे सज्जनोंपर यदि क्रोध करते हैं तो उचित ही है ॥ २२ ॥ जिस प्रकार कवीश्वर लोग अपने अनुकूल चलनेवालेकी सदा स्तुति करनेके योग्य होते हैं उसी प्रकार कवि भी अपने अनुकूल नहीं चलनेवाले मेरी निन्दा करनेके योग्य हैं । भावार्थ उत्तम कवियों के मार्गपर चलने के कारण जहाँ वे मेरो प्रशंसा करेंगे वहाँ कुकवियों के मार्गपर न चलने के कारण वे मेरी निन्दा भी करेंगे || २३ || कवि ही कविके काव्य करनेके परिश्रमको अच्छी तरह जान सकता है, जिस प्रकार वन्ध्या स्त्री पुत्र उत्पन्न करनेकी वेदनाको नहीं जानती उसी प्रकार अकवि कविके परिश्रमको नहीं जान सकता ॥ २४ ॥ रे दुष्ट, यदि मेरे इस ग्रन्थ में दोष हों तो उन्हें तू ग्रहण कर क्योंकि वह तेरा ही धन है उसके लिए तुझे रुकावट नहीं है, परन्तु
१ उत्तरार्द्धम् । २ यदपि प०, ल० म० । ३ प्रभावोऽसौ अ०, प०, इ०, स०, ल० ५ श्रोतुमिच्छवः । ६ तत् कारणात् । ७ दुर्जनद्वेषिणाम् । ८ सज्जनः । आधारः । १० निजानुवर्तिनम् ।
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म० । ४ गुरवः ।
९ यतः कारणात् ।