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आदिपुराणम्
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अन्वेयरिभमा पुनस्तद्वनमापतत्। नागी श्रुतवती धर्म राजाऽत्रैव सहात्मना ॥ ६२ ॥ ater काकोदरेणामा जातकोपो विजातिना । लीलानीलोत्पलेनाहन् दम्पती तौ धिगित्यसौ ॥ ९३॥ पलायमानौ पाषाणैः काष्ठैर्लोष्ठैः पदातयः । अघ्नन् सर्वे न को वाऽत्र दुश्चरित्राय कुप्यति ॥१४॥ पापः स तया वेदना कुलधीस्तदा । नाम्नाऽजायत गङ्गायां कालीति जलदेवता ॥९५॥ संजातानुशया साऽपि धृत्वा धर्मं हृदि स्थिरम् । भूत्वा प्रिया स्वनागस्य राज्ञा स्वमृतिमब्रवीत् ॥ १६ ॥ नागमपि तां पश्यन् कोपादेवममन्यत । दर्पात्तेन खलेनैषा वराकी" हा हता वृथा ॥ ९७ ॥ विधवेति विवेदाधीनेदृक्षं मामिमं धवम् । न तत्प्राणान् हरे यावद् भुजङ्गा केन वाऽस्म्यहम् ॥ ९८ ॥ इत्यतोऽसौ "दिदस्तं जयं तद्गृहमासदत् । न सहन्ते ननु स्त्रीणां नियोऽपि पराभवम् ॥ ९९ ॥ "वासगेहे जयो रात्री श्रीमत्याः "कौतुकं प्रिये । शृण्वेकं दृष्टमित्यख्य जङ्गीविचेष्टितम् ॥ १०० ॥ आमजात्यं वयो रूपं विद्यां वृत्तं यशः श्रियम् । विभुत्वं विक्रमं कान्तिमैहिकं पारलौकिकम् ॥ १०१ ॥ प्रीतिमप्रीतिमादेयमनादेयं कृपां त्रपाम् । हानिं वृद्धिं गुणान् दोषान् गणयन्ति न योषितः ॥ १०२ ॥ धर्मः कामश्च सज्ञेयो वित्तेनायं तु सत्ययः क्रीत्यर्थं स्त्रियस्ताभ्यां धिक् तासां वृद्धगृध्नुताम् ॥ १०३ ॥ किसी दूसरे दिन वही राजा जयकुमार हाथीपर सवार होकर फिर उसी वनमें गया और वहाँ अपने साथ-साथ मुनिराजसे धर्म श्रवण करनेवाली सर्पिणीको काकोदर नामके किसी विजातीय सर्पके साथ देखकर बहुत ही कुपित हुआ तथा उन दोनों सर्प सर्पिणीको धिक्कार देकर क्रीड़ाके नील कमलसे उन दोनोंका ताड़न किया ।। ९२-९३ ॥ वे दोनों वहाँसे भागे किन्तु पैदल चलनेवाले सेनाके सभी लोग भागते हुए उन दोनोंको लकड़ी तथा ढेलोंसे मारने लगे सो उचित ही
करता है ? || ९४ || उन घावोंके
गंगा नदीमें काली नामका जल
है क्योंकि इस संसार में दुराचारी पुरुषोंपर कौन क्रोध नहीं द्वारा दुःखसे व्याकुल हुआ वह पापी सर्प उसी समय मरकर देवता हुआ ।। ९५ ।। जिसे भारी पश्चात्ताप हो रहा है ऐसी वह सर्पिणी हृदयमें निश्चल धर्मको धारण कर मरी और मरकर अपने पहलेके पति नागकुमारदेवकी स्त्री हुई । वहाँ जाकर उसने उसे राजाके द्वारा अपने मरणकी सूचना दी ||९६ ॥ | वह नागकुमार देव भी उसे देखकर क्रोधसे ऐसा मानने लगा कि इस दुष्ट राजाने अहंकारसे इस बेचारी सर्पिणीको व्यर्थ ही मार दिया ॥९७॥ उस मूर्खने इसे विधवा जाना, यह न जाना कि इसका मेरा जैसा पति है इसलिए मैं जबतक उसका प्राण हरण न करूँ तबतक सर्प ( नागकुमार ) कैसे कहला सकता हूँ ? ऐसा सोचता हुआ वह नागकुमार जयकुमारको काटनेकी इच्छासे शीघ्र ही उसके घर आया सो ठीक ही है क्योंकि तिर्यञ्च भी स्त्रियोंका पराभव सहन नहीं कर सकते हैं ॥ ९८-९९ ।। जयकुमार रात्रि के समय शयनागार में अपनी रानी श्रीमती से कह रहा था कि हे प्रिये, आज मैने एक कौतुक देखा है उसे सुन, ऐसा कहकर उसने उस सर्पिणीको सब कुचेष्टाएँ कहीं ॥१००॥ इसी प्रकरणमें वह कहने लगा कि देखो, स्त्रियाँ कुलीनता, अवस्था, रूप विद्या, चारित्र, यश, लक्ष्मी प्रभुता, पराक्रम, कान्ति, इहलोक - परलोक, प्रीति, अप्रीति, ग्रहण करने योग्य ग्रहण न करने योग्य, दया, लज्जा, हानि, नहीं गिनती हैं ।। १०१-१०२ ।। धनके द्वारा धर्म और कामका
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वृद्धि, गुण और दोषको कुछ भी
संचय करना चाहिए यह तो
१ आगच्छत् । २ सर्पिणीम् । ३ आकणितवतीम् । ४ अन्यजातिसर्पेण सह कामक्रीडां कुर्वतीम् । ५ ताडयति स्म ६ घ्नन्ति स्म । ७ को करोति ८ निजभर्तृचरनागामरस्य ९ नृपेण जातनिजमरणम् १० जयेन ११ अगतिका १२ पतिम् १३ सत्प्राणान्न हरे ल० म० अ० १४ दंशितुमिडुः । १५ शय्यागृहे । 'ऊषन्ति शयनस्थानं वासागारं विशारदः' इति हलायुधः । १६ निजप्रियायाः । १७ कुलजत्वम् । १८ संचेतुं योग्यः | १९ धर्मकामाभ्याम् । २० समृद्धाभिलाषिताम् ।