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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व राजा राजप्रभो लक्ष्मीमती देवी प्रियानुजः । श्रेयान् ज्यायान् जयः पुत्रस्तद्राज्यं पूज्यते न कैः ॥२॥ स पुत्रविटपाटोपः सोमकल्पाघ्रिपश्चिरम् । भोग्यः संभृतपुण्यानां स्वस्य चाभूत्तदभुतम् ॥३॥ अथान्यदा जगत्कामभोगबन्धून् विथुप्रभः । अनित्याशुचिदुःखान्यान्मत्वा याथात्म्यवीक्षणः ॥४॥ विरज्य राज्यं संयोज्य धुयें शौर्योर्जिते जये । अजयौदार्यवी र्यादिप्राज्यराज्यसमुत्सुकः ॥४५॥ अभ्येत्य वृषभाभ्याशं दीक्षित्वा मोक्षमन्वभूत् । श्रेयसा सह 'नार्पत्यमनुजेन यथा पुरा॥८६॥ पितुः पदमधिष्टाय” जयोऽतापि महीं महान् । महतोऽनुभवन् भोगान् संविमज्यानुजैः समम् ॥७॥ एकदाऽयं विहारार्थं बाह्योद्यानमुपागतः । तत्रासीनं समालोक्य शीलगुप्तं महामुनिम् ॥८८॥ त्रिःपरीत्य नमस्कृत्य नुत्वा भक्तिमरान्वितः । श्रुत्वा धर्म तमापृच्छ य प्रीत्या प्रत्यविशत् पुरीम् ॥८९॥ तस्मिन् वने वसन्नागमिथुनं सह भूभुजा । श्रुत्वा धर्म सुधां मत्वा पपौ प्रीत्या दयारसम् ॥१०॥ कदाचित् प्रावृडारम्भे प्रचण्डाशनिताडितः । मृत्वाऽसौ शान्तिमादाय नागो नागामरोऽभवत् ॥११॥
प्रकार अपने तेजको बढ़ानेवाले, अतिशय सुन्दर और विशेष कलाओंको धारण करनेवाले उन पन्द्रह पुत्रोंसे राजाधिराज सोमप्रभ सुशोभित हो रहे थे ॥८१॥ जिस राज्यका राजा सोमप्रभ था, लक्ष्मीमती रानी थी, प्रिय छोटा भाई श्रेयांस था और बड़ा राजपुत्र जयकुमार था भला वह राज्य किसके द्वारा पूज्य नहीं होता ? ॥८२॥ जिसपर पुत्ररूपी शाखाओंका विस्तार है ऐसा वह राजा सोमप्रभरूपी कल्पवृक्ष, पुण्य संचय करनेवाले अन्य पुरुषोंको तथा स्वयं अपने-आपको भोग्य था यह आश्चर्यकी बात है। भावार्थ-पुत्रों-द्वारा वह स्वयं सुखी था तथा अन्य सब लोग भी उनसे सुख पाते थे ।।८३॥
अथानन्तर किसी समय पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले राजा सोमप्रभ संसार, शरीर, भोग और भाइयोंको क्रमशः अनित्य, अपवित्र, दुःखस्वरूप और अपनेसे भिन्न मानकर विरक्त हुए तथा कभी नष्ट न होनेवाले अनन्त वीर्य आदि गुणोंसे श्रेष्ठ मोक्षरूपी राज्यके पानेमें उत्सुक हो, शूरवीर तथा धुरन्धर जयकुमारको राज्य सौंपकर भगवान् वृषभदेवके समीप गये और वहाँ अपने छोटे भाई श्रेयांसके साथ दीक्षा लेकर मोक्षसुखका अनुभव करने लगे। जिस प्रकार वे पहिले यहाँ अपने छोटे भाईके साथ राज्यसुखका उपभोग करते थे उसी प्रकार मोक्षमें भी अपने छोटे भाईके साथ वहाँका सुख उपभोग करने लगे। भावार्थ-दोनों भाई मोक्षको प्राप्त हुए ॥८४-८६॥ इधर श्रेष्ठ जयकुमार पिताके पदपर आसीन होकर पृथिवीका पालन करने लगा। और अपने बड़े भारी भोगोपभोगोंको बाँटकर छोटे भाइयोंके साथ-साथ उनका अनुभव करने लगा ॥८७।। एक दिन वह जयकुमार क्रीड़ा करनेके लिए नगरके बाहर किसी उद्यानमें गया । उसने वहाँ विराजमान शीलगुप्त नामके महामुनिके दर्शन कर उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं, बड़ी भारी भक्तिके साथ-साथ नमस्कार किया, स्तुति की, प्रीतिपूर्वक धर्म सुना और फिर उनसे आज्ञा लेकर नगरको वापिस लौटा ॥८८-८९॥ उसी वनमें साँपोंका एक जोड़ा रहता था उसने भी राजाके साथ-साथ धर्म श्रवणकर उसे अमत मान बड़े प्रेमसे दयारूपी रसका पान किया था ॥९०॥ किसी समय वर्षाऋतुके प्रारम्भमें प्रचण्ड वज्रके पड़नेसे उस जोड़ेमें-का वह सर्प शान्तिधारण कर मरा जिससे नागकुमार जातिका देव हुआ ॥९१।।
१ सोमप्रभः । २ शाखातिशयः । ३ सोमप्रभः । ४ यथात्मस्वरूपदर्शी। ५ धुरन्धरे । ६ अक्षय्य । ७ महत्त्व । ८ प्रकृष्टराज्योत्कण्ठित इत्यर्थः । ९ समीपम् । १० निजानुजेन । ११ नृपतित्वम् । १२ राज्यकाले यथा । १३ आश्रित्य । १४ पालयति स्म । १५ सह ल०, म० । १६ -गुप्तमहा-ल०, म०।