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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
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न स्थूले न कृशे नर्ज् न वक्रे न च सङ्कटे' । विकटे' न च तज्जङ्घे शोभाऽन्यैवैनयोरसौ ॥१४२॥ काञ्चीस्थानं" "तदालोच्येवोरू स्थूले सुसङ्गते । कायगर्भगृहद्वारस्तम्भयष्ट्याकृती कृते ॥१४३॥ वेदिकेव मनोजस्य शिरो वा स्मरदन्तिनः । सानुर्वाऽनङ्गशैलस्य शुशुभेऽस्याः कटीतटम् ॥ १४४॥ कृत्वा कृशं भृशं मध्यं बद्धं भङ्गभयादिव । रज्जुभिस्तिसृभिर्धात्रा' वलिभिर्गाढमाबभौ ॥ १४५॥ नाभिकूपप्रवृत्ता 'रसमार्गसमुद्गता । श्यामा शाड्वलमालेव' रोमराजिर्व्यराजत ॥ १४६ ॥ भिन्नौ युक्तौ मृदूस्तब्धौ" उगौ सन्तापहारिणौ । स्तनौ विरुद्धधर्माणौ स्याद्वादस्थितिमूहतुः ॥ १४७॥ सहवक्षोनिवासिन्या समाश्लिष्य जयः श्रिया । स्वीकृतो यदि चेत्ताभ्यां वर्ण्यते तदद्भुजौ कथम् ॥१४८ ।। वीरलक्ष्मीपरिष्वजयदक्षिणबाहुना । सवामेन” परिष्वक्त स्तत्कण्टस्तस्य कोपमा ॥ १४९ ॥ निःकृपौ" पेशलौ " श्लक्ष्णौ तत्कपोलौ विलेसतुः " । कान्तौ कलभदन्ताभौ जयवक्त्राब्जदर्पण' ॥ १५० ॥ वटत्रिस्त्रप्रवालादिनोपमेयमपीष्यते । अधरस्यातिदूरत्वाद् वर्णाकाररसादिभिः ॥ १५१ ॥
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बड़े स्नेहसे नमस्कार करेगा ऐसे उसके दोनों चरणकमलोंमें जो शोभा थी वह क्या कमलों में हो सकती है ? अर्थात् नहीं ॥ १४१ ॥ उसकी दोनों जंघाएँ न स्थूल थीं, न कृश थीं, न सीधी थीं, न टेढ़ी थीं, न मिली हुई थीं और न दूर-दूर ही थीं। उसकी दोनों जंघाओंकी शोभा निराली ही थी || १४२ ॥ उसके करधनी पहननेके स्थान - नितम्बस्थलको देखकर ही मानो स्थूल, परस्परमें मिले हुए और कामदेवके गर्भगृहंसम्बन्धी दरवाजेसे खम्भोंकी लकड़ीके समान दोनों ऊरु बनाये गये ॥ १४३ ॥ उसका नितम्ब प्रदेश ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो कामदेवकी वेदी ही हो अथवा कामदेवरूपी हाथीका शिर ही हो अथवा कामदेवरूपी पर्वतका शिखर ही हो || १४४ ।। उसका मध्यभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो विधाताने उसे पहले तो अत्यन्त कृश बनाया हो और फिर टूट जानेके भयसे त्रिवलीरूपी तीन रस्सियोंसे मजबूत बाँध दिया हो ॥ १४५ ॥ नाभिरूपी कुएँसे निकली हुई उसकी रोमराजि ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो जलमार्ग से निकली हुई हरी-हरी छोटी घासकी पङ्क्ति ही हो ।। १४६ ।। उसके स्तन भिन्न-भिन्न होकर भी ( स्थूल होनेके कारण ) एक दूसरेसे मिले हुए थे, कोमल होकर भी ( उन्नत होने के कारण ) कठोर थे, और उष्ण होकर भी ( आह्लादजनक होनेके कारण ) संतापको दूर करनेवाले थे, इस प्रकार विरुद्ध धर्मोंको धारण करनेवाले उसके दोनों स्तन स्याद्वादकी स्थितिको धारण कर रहे थे || १४७|| चूँकि उसकी दोनों भुजाओंने वक्षस्थलपर निवास करनेवाली लक्ष्मीके साथ आलिङ्गन कर जयकुमारको स्वीकृत किया है इसलिए उनका वर्णन भला कैसे किया जा सकता है ? ॥ १४८ ॥ उसका कष्ठ वीर लक्ष्मीसे सुशोभित जयकुमारके दायें और बायें दोनों हाथोंसे आलिंगनको प्राप्त हुआ था अतः उसकी उपमा क्या हो सकती है । भावार्थ-उसकी उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? अर्थात् किसी के साथ नहींवह अनुपम था ।। १४९|| हाथी के बच्चेके दाँतकी आभाको धारण करनेवाले उसके निष्कृप, कोमल और चिकने दोनों कपोल ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो जयकुमारका मुखकमल देखने के लिए सुन्दर दर्पण ही हों ।। १५० ।। वटकी कोंपल, बिम्बी फल और मूँगा आदि पदार्थ, वर्ण, आकार और रस आदिमें ओठोंसे बहुत दूर हैं अर्थात् उसके ओठोंके समान न तो
१ सङ्कीर्णे । २ विशाले । ३ विलक्षणैव । ४ कटितटम् । ५ आलोक्य । ६ इव । ७ ब्रह्मणा । ८ सुलोचनायाः । ९ जलमार्ग । १० हरितपङ्क्तिः । ' शाबल: शादहरिते' इत्यभिधानात् । आद्बलल०, म० अ० । ११ कहिनी । १२ सुलोचनाभुजाभ्याम् । १३ वामभुजसहितेन । १४ आलिङ्गितः । १५ जनसन्तापहेतुत्वात् । १६ कोमलौ । १७ रेजतुः । १८ जयकुमारमुख । १९ अपिशब्दात् केवलमुपमानं न ।