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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
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वृश्चिकस्य विषं पश्चात् पन्नगस्य विषं पुरः । योषितां दूषितेच्छानां विश्वतो विषमं विषम् ॥ १०४ ॥ सत्याभासैर्नतैः स्त्रीणां वञ्चिता ये न धीधनाः । दुःश्रुतीनामिवैताभ्यो मुक्तास्ते मुक्तिवल्लभाः ॥ १०५ ॥ तासां किमुच्यते कोपः प्रसादोऽपि भयंकरः । हन्त्यधीकान् प्रविश्यान्तरगाधसरितां यथा ॥ १०६ ॥ "जालकैरिन्द्रजालेन वच्या ग्राम्या' हि मायया । ताभिः सेन्द्रो' 'गुरुर्वञ्च्यस्तन्मायामातरः स्त्रियः ॥ ताः श्रयन्ते गुणान्नैव नाशभीत्या यदि श्रिताः । तिष्ठन्ति न चिरं प्रान्ते नश्यन्त्यपि च ते स्थिताः ॥ १०८ ॥ दोषाः किं तन्मयास्तासु दोषाणां किं समुद्भवः । तासां दोषेभ्य इत्यत्र न कस्यापि विनिश्चयः ॥ १०६ ॥ निर्गुणान् गुणिनो मन्तुं गुणिनः खलु निर्गुणान् । नाशकत् परमात्माऽपि मन्यन्ते ता हि हेलया ॥ मोक्षगुणमयो नित्यो दोषमय्यः स्त्रियश्चलाः । तासां नेच्छन्ति निर्वाणमत एवाप्तसूक्तिषु ॥ १११ ॥ लक्ष्मीः सरस्वती कीर्तिर्मुक्तिस्त्वमिति विश्रुताः । दुर्लभास्तासु वल्लीषु कल्पवरस्य इव प्रिये ॥ १३२ ॥ इत्येतच्चाह तच्छ्रुत्वा तं जिघांसुर हिस्तदा । पापिना चिन्तितं पापं मया पापापलापतः " ॥११३॥
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समीचीन मार्ग है परन्तु स्त्रियाँ धर्म और कामसे धन खरीदती हैं अतः उनकी इस बढ़ी हुई लोलुपताको धिक्कार हो ॥ १०३ ॥ विष बिच्छूके पीछे ( पूँछपर) और साँपके आगे (मुँह में ) रहता है परन्तु जिनकी इच्छाएँ दुष्ट हैं ऐसी स्त्रियोंके सभी ओर विषम विष भरा रहता है ॥ १०४॥ खोटी श्रुतियोंके समान इन स्त्रियोंके सत्याभास ( ऊपरसे सत्य दिखानेवाले परन्तु वास्तवमें झूठे ) नमस्कारोंसे जो बुद्धिमान् नहीं ठगे जाते हैं- इनसे बचे रहते हैं वे ही मुक्तिरूपी - स्त्रीके वल्लभ होते हैं । भावार्थ - जिस प्रकार कुशास्त्रोंसे न ठगाये जाकर उनसे सदा बचे रहनेवाले पुरुष मुक्त होते हैं उसी प्रकार इन स्त्रियोंके हावभाव आदिसे ठगाये जाकर उनसे बचे रहनेवाले - दूर रहनेवाले पुरुष ही मुक्त होते हैं || १०५ || जिन स्त्रियोंकी प्रसन्नता ही भयंकर है उनके क्रोधका क्या कहना है। जिस प्रकार गहरी नदियोंकी निर्मलता मूर्ख लोगोंको भीतर प्रविष्ट कर मार देती है उसी प्रकार स्त्रियोंकी प्रसन्नता भी मूर्ख पुरुषोंको अपने अधीन कर नष्ट कर देती है ॥१०६॥ इन्द्रजाल करनेवाले अपने इन्द्रजाल अथवा मायासे मूर्ख ग्रामीण पुरुषोंको ही ठगा करते हैं परन्तु स्त्रियाँ इन्द्र सहित बृहस्पतिको भी ठग लेती हैं इसलिए स्त्रियाँ मायाचारकी माताएँ कही जाती हैं ॥ १०७॥ प्रथम तो गुण स्त्रियोंका आश्रय लेते ही नहीं हैं यदि कदाचित् आश्रयके अभाव में अपना नाश होनेके भयसे आश्रय लेते भी हैं तो अधिक समय तक नहीं ठहरते और कदाचित् कुछ समयके लिए ठहर भी जाते हैं तो अन्तमें अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं || १०८ ॥ दोषोंका तो पूछना ही क्या है ? वे तो स्त्रीस्वरूप ही हैं अथवा दोषोंकी उत्पत्ति स्त्रियों में है अथवा दोषोंसे स्त्रियोंकी उत्पत्ति होती है इस बातका निश्चय इस संसारमें किसीको भी नहीं हुआ है ॥ १०६ ॥ निर्गुणोंको गुणी और गुणियोंको निर्गुण माननेके लिए परमात्मा भी समर्थ नहीं है परन्तु स्त्रियाँ ऐसा अनायास हो मान लेती हैं ॥ ११०॥ मोक्ष गुण स्वरूप और नित्य है परन्तु स्त्रियाँ दोषस्वरूप और चंचल हैं मानो इसीलिए अरहन्तदेवके शास्त्रोंमें उनका मोक्ष होना नहीं माना गया है ।। १११ ॥ हे प्रिये, जिस प्रकार लताओं में कल्पलता दुर्लभ है उसी प्रकार स्त्रियोंमें लक्ष्मी, सरस्वती, कीर्ति, मुक्ति और तू ये प्रसिद्ध स्त्रियाँ अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ११२ ॥ यह सब जयकुमारने अपनी स्त्रीसे कहा, उसे सुनकर जयकुमारको
१ दुष्टवाञ्छानाम् । २ दुष्टशास्त्राणाम् । ३ प्रवेशं कारयित्वा । ४ वञ्चकैः । ५ इन्द्रजालसंजातया माययेति संबन्धः । ६ परीक्षाशास्त्रबहिर्भूताः । ७ स्त्रीभिः । ८ इन्द्रजालादिदेवताभूतेन्द्रसहितः । ९ तदिन्द्रमन्त्री बृहस्पतिः । १० तत् कारणात् । ११ नाभवत् । १२ स्त्रियः । १३ दोषवत्य - ल०, म० । १४ हन्तुमिच्छः । १५ पापिष्ठायाः निह्नवात् । 'अपलापस्तु निह्नवः' इत्यभिधानात् ।
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