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आदिपुराणम् युगभारं' वहन्नेकश्चिरं धर्मरथं पृथुम् । व्रतशीलगुणापूर्ण चित्रं वर्तयति स्म यः ॥७॥ तमेकमक्षरं ध्यात्वा व्यकर्मकमिवाक्षरम् । वक्ष्ये समीक्ष्य लक्ष्याणि तत्पुराणस्य चूलिकाम् ॥८॥ स्वोक्त प्रयुक्ताः सर्वे नों रसागुरुभिरेव ते । 'स्नेहादिह तदुत्सृष्टान्" भक्त्या "तानुपयुंज्महे ॥९॥ - रागादीन् दूरतस्त्यक्त्वा शृङ्गारादिरसोनिभिः । पुराणकारकाः शुद्धबोधाः शुद्धा मुमुक्षवः ॥१०॥ निर्मितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः । तच्छेपे यतमानानां प्रासादस्यव"नः श्रमः ॥११॥ पुराणे प्रौढशब्दार्थे सत्पत्रफलशालिनि । वचांसि पल्लवानीव कर्ण कुर्वन्तु में बुधाः ॥१२॥ अर्धं गुरुभिरेवास्य' पूर्व निष्पादित परैः । परं' निप्पाद्यमानं सच्छन्दोवन्नातिसुन्दरम् ॥१३॥ इशोरिखास्य पूर्वार्दमेवाभावि रसावहम् । यथा तथास्तु'निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ॥१४॥
अनन्विष्य मयि प्रौढिं धर्मोऽयमिति गृह्यताम् । चाटुके स्वादु मच्छन्ति न भोकारस्तु भोजनम् ॥१५॥ है ॥६॥ और आश्चर्य है कि जिन्होंने अकेले ही बहुत काल तक इस अवसर्पिणी युगके भारको ( पक्षमें जुवारीके बोझको ) धारण करते हुए व्रत, शील आदि गुणोंसे भरे हुए बड़े भारी धर्मरथको चलाया था ॥७॥ ऐसे उन अद्वितीय अविनाशी भगवान् वृषभदेवको एक प्रसिद्ध ओम् अक्षरके समान ध्यान कर तथा पूर्वशास्त्रोंका विचार कर इस महापुराणकी चूलिका कहता हूँ॥८॥ हमारे गुरु जिनसेनाचार्यने हमारे स्नेहसे अपने द्वारा कहे हुए पुराणमें सब रस कहे हैं इसलिए उनकी भक्तिसे छोड़े गये रसोंका ही हम आगे इस ग्रन्थमें उपयोग करेंगे ॥९॥ राग आदिको दूरसे ही छोड़कर शृंगार आदि रसोंका निरूपण कर पुराणोंकी रचना करनेवाले शुद्ध ज्ञानी, पवित्र और मोक्षकी इच्छा करनेवाले होते हैं ॥१०॥ इस पुराणका समस्त सार तो महात्मा जिनसेनाचार्यने पूर्ण ही कर दिया है अब उसके वाकी बचे हुए अंशमें प्रयत्न करनेवाले हम लोगोंका परिश्रम ऐसा समझना चाहिए जैसा कि किसी मकानके किसी बचे हुए भागको पूर्ण करनेके लिए थोड़ा-सा परिश्रम करना पड़ा हो ॥११॥ यह पुराणरूपी वृक्ष शब्द और अर्थसे प्रौढ़ है तथा उत्तम-उत्तम पत्ते और फलोंसे सुशोभित हो रहा है इसमें मेरे वचन नवीन पत्तोंके समान हैं इसलिए विद्वान् लोग उन्हें अवश्य ही अपने कर्णोपर धारण करें। भावार्थ-जिस प्रकार वृक्षके नये पत्तोंको लोग अपने कानोंपर धारण करते हैं उसी प्रकार विद्वान् लोग हमारे इन वचनोंको भी अपने कानोंमें धारण करें अर्थात् स्नेहसे श्रवण करें ॥१२॥ इस पुराणका पूर्व भाग गुरु अर्थात् जिनसेनाचार्य अथवा दीर्घ वर्गों से बना हुआ है और उत्तर भाग पर अर्थात् गुरुसे भिन्न शिष्य (गुणभद्र) अथवा लघु वर्गों के द्वारा बनाया जाता है इसलिए क्या वह छन्दके समान सुन्दर नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा। भावार्थ-जिस प्रकार गुरु और लघु वर्गों से बना हुआ छन्द अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार गुरु और शिष्यके द्वारा बना हआ यह पूराण भी अत्यन्त सुन्दर होगा ॥१३॥ 'जिस प्रकार ईखका पूर्वार्ध भाग ही रसीला होता है उसी प्रकार इस पुराणका भी पूर्वार्ध भाग ही रसीला हो' यह विचार कर मैं इसके उत्तरभागकी रचना प्रारम्भ करता हूँ ॥१४॥ मुझमें प्रौढ़ता ( योग्यता ) की खोज न कर इसे केवल धर्म समझकर ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भोजन करनेवाले प्रिय वचन १ चतुर्थकालधुरम् । दण्डभेदं च । २ अविनश्वरम् । ३ ओङ्कारमिव । ४ पूर्वोक्तशास्त्राणि । ५ पुरुनाथपुराणस्य । ६ अग्रम् । ७ आत्मना प्रणीते पुराणे । ८ अस्माकम् । ९ मयि प्रेम्णः । १० उत्तरपुराणे । ११ तज्जिनसेनाचार्येणावशेषितान् (प्रणीतानेव)। १२ रसान् । १३ महात्मकः ब० । १४ निमितप्रासादावशेषे यतमानानामिव । १५ जिनसेनाचार्यः । छन्दः पक्षे गुर्वक्षरैः । १६ पुराणस्य । १७ अस्मदादिभिः । पक्ष लध्वक्षरैः अल्पाक्षरैः । १८ अपरार्द्धम् । १९ उक्तात्युक्तादिछन्दोभेदवत् । २० निश्चितम् । २१ निष्ठा । २२ अविमृग्य । २३ प्रियवचने ।