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आदिपुराणम्
अनुष्टुप्
वृषभाय नमोऽशेषस्थितिप्रभवहेतवे । त्रिकाल गोचरानन्तप्रमेयाक्रान्तमूर्तये ॥ १ ॥ सकलकल्याणपथ निर्माणहेतवे । आदिदेवाय संसारसागरोत्तारसेतवे ॥ २॥
नमः
पृथ्वीच्छन्दः
जयन्ति जितमृत्यat विपुलवीर्यभाजो जिना जगत्प्रमदहेतवो विपदमन्दकन्दच्छिदः ॥ सुरासुरशिरःस्फुरितरागरत्नावलीविलम्बिकिरणोत्करारुणित चारुपादद्वयाः ॥३॥ कृतिर्महाकवेर्भगवतः श्री जिनसेनाचार्यस्येति ।
वसन्ततिलका
धर्मो मुक्तिपदमत्र कवित्वमत्र तीर्थेशिनश्चरितमत्र महापुराणे । कवीन्द्र जिनसेनमुखारविन्दनिर्यद्वचांसि न हरन्ति मनांसि केषाम् ॥ ४ ॥
इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत महापुराणे आद्यं खण्डं समाप्तिमगमत् ।
जो समस्त मर्यादाकी उत्पत्तिके कारण हैं और जिनकी केवलज्ञानरूपी मूर्ति त्रिकाल - विषयक अनन्त पदार्थोंसे व्याप्त है उन वृषभदेवके लिए नमस्कार हो ॥ १ ॥ जो सब कल्याणोंकें मार्गकी रचना में कारण हैं और जो संसाररूपी समुद्रसे पार करनेके लिए पुलके समान हैं ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेवको नमस्कार हो ॥ २॥ जिन्होंने मृत्युको जीत लिया है, जो अनन्त बलको धारण करनेवाले हैं, जो जगत्के आनन्दके बहुत भारी जड़ को काटनेवाले हैं, मणियोंकी पंक्तिसे निकलती हुई
कारण हैं, जो विपत्तियोंकी और सुर तथा असुरोंके मस्तकपर चमकते हुए पद्मरागकिरणोंके समूहसे जिनके दोनों सुन्दर चरणकमल कुछ-कुछ लाल हो रहे हैं ऐसे जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त हों ॥३॥
( इस प्रकार महाकवि भगवान् जिनसेनाचार्यकी कृति समाप्त हुई )
इस महापुराण में धर्मका निरूपण है, मोक्ष पद अथवा मोक्षमार्गका कथन है, उत्तम कविता है और तीर्थंकर भगवान्का चरित है अथवा इस प्रकार समझना चाहिए कि कवियों में श्रेष्ठ श्री जिनसेन के मुखकमलसे निकले हुए वचन किसके मनको हरण नहीं करते हैं ? ||४||
( इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत महापुराणका प्रथम खण्ड समाप्त हुआ )
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