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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व
३४९ जातिक्षत्रियवत्तमर्जिततरं रत्नत्रयाविष्कृतं
तीर्थक्षत्रियवृत्तमप्यनुजगौ यच्चक्रिणामग्रणीः । तत्सर्व मगधाधिपाय भगवान् वाचस्पतिौतमो
'व्याचख्यावखिलार्थतत्त्वविषयां जैनी अति ख्यापयन् ॥२०६॥ वन्दारोर्भरताधिपस्य जगतां भर्तुः क्रमौ वेधसः
_ तस्यानुस्मरतो गुणान् प्रणमतस्तं देवमाद्यं जिनम् । तस्यैवोपचितिं सुरासुरगुरोर्भक्त्या मुहुस्तन्वतः
कालोऽनल्पतरः सुखाद् व्यतिगतो नित्योत्सवैः संभृतः ॥२०७॥
मन्दाक्रान्ता जैनीमिज्यां वितन्वन्नियतमनुदिनं प्रीणयन्नथिसाथ
शश्वद्विश्वम्भरेशैरवनितलसन्मौलिभिः सेव्यमानः । क्ष्मां कृत्स्नामापयोधेरपि च हिमवतः पालयनिस्सपत्नां
रम्यैः स्वेच्छाविनोदैनिरविश दधिराड् भोगसारं दशाङ्गम् ॥२०॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह भरतराजवर्णाश्रमस्थितिप्रतिपादनं नाम द्विचत्वारिंशत्तम पर्व ॥१२॥
मार्गमें स्थिर रहकर प्रतिदिन धर्मोत्सव करते हुए सन्तोष धारण करने लगे ॥२०५।। चक्रवतियोंमें अग्रेसर महाराज भरतने जो अत्यन्त उत्कृष्ट जातिक्षत्रियोंका चरित्र तथा रत्नत्रयसे प्रकट हुआ तीर्थक्षत्रियोंका चरित्र कहा था वह सब, समस्त पदार्थोंके स्वरूपको विषय करनेवाले जैन शास्त्रोंको प्रकट करते हुए वाचस्पति ( श्रुतकेवली ) भगवान् गौतम गणधरने मगध देशके अधिपति श्रेणिकके लिए निरूपण किया ॥२०६॥ तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् वृषभदेवके चरणोंकी वन्दना करनेवाले, उन्हीं परब्रह्मके गुणोंका स्मरण करनेवाले, उन्हीं प्रथम जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करनेवाले और सुर तथा असुरोंके गुरु उन्हीं भगवान् वृषभदेवकी भक्तिपूर्वक बार-बार पूजा करनेवाले भरतेश्वरका निरन्तर होनेवाले उत्सवोंसे भरा हुआ भारी समय सुखसे व्यतीत हो गया ॥२०७॥ जो नियमित रूपसे प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करता है, जो प्रतिदिन याचकोंके समहको सन्तुष्ट करता है. पथिवीपर झुके हए मकूटोंसे सुशोभित होनेवाले राजा लोग जिसकी निरन्तर सेवा करते हैं और जो हिमवान् पर्वतसे लेकर समुद्रपर्यन्तकी शत्रुरहित समस्त पृथिवीका पालन करता है ऐसा वह सम्राट भरत अपनी इच्छानुसार क्रीड़ाओंके द्वारा दश प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग करता था ॥२०८॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें भरतराजको वर्णाश्रमकी रीतिका प्रतिपादन
करनेवाला बयालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४२।।
१ उवाच । २ प्रकटीकुर्वन् । ३ पूजाम् । ४ व्यतिक्रान्तः । ५ सम्पोषितः । ६ समुद्रादारभ्य हिमवत्पर्यन्तम् । ७ अन्वभूत् । ८ दिव्यपुररत्ननिधिसेनाभाजनशयनासनवाहननाटयादीनि दशाङ्गानि यस्य स तम्। * ल० म० इ०प० पुस्तकेषु निम्नांकितः पाठोऽधिको दृश्यते । त० ब० अ० स० पुस्तकेष्वेष पाठो न दृश्यते ।