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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व वयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकसंमताः । धान्यभागमतो राजे न दद्म इति चेन्मतम् ॥१८७॥ वैशिष्टयं किङकृतं शेषवणेभ्यो मवतामिह । न जातिमात्राद वैशिष्ट्यं जातिभेदाप्रतीतितः ॥१८८॥ गुणतोऽपि न वैशिष्टयमस्ति वो नामधारकाः । व्रतिनो ब्राह्मणा जैना ये त एव गुणाधिकाः ॥१८९॥ निर्वता निर्नमस्कारा निघृणाः पशुघातिनः । म्लेच्छाचारपरा यूयं न स्थाने धार्मिका द्विजाः॥१९०॥ तस्मादन्ते कुरु म्लेच्छा इव तेऽमी महीभुजाम् । प्रजासामान्यधान्यांशदानाद्यरविशेषिताः ॥१९॥ किमत्र बहुनोतन जैनान्मुक्त्वा द्विजोत्तमान् । नान्ये मान्या नरेन्द्राणां प्रजासामान्यजीविकाः ॥१९॥ अन्यञ्च गोधनं गोपो व्याघ्रचोराद्युपक्रमात् । यथा रक्षत्यतन्द्रालुभूपोऽप्येवं निजाः प्रजाः ॥१६३॥ यथा च गोकुलं गोमिन्यायाते संदिदृक्षया । सोपचारमुपेत्यैनं तोषयेद् धनसम्पदा ॥१६॥ भूपोऽप्येवं बली कश्चित् स्वराष्ट्रं यद्यमिद्रवेत् । तदा वृद्धः समालोच्य संदध्यात् पणबन्धतः ॥१५॥ जनक्षयाय संग्रामो बह्वपायो दुरुत्तरः । तस्मादुपप्रदानाद्यः संधेयोऽरिबलाधिकः ॥१९६॥ इति गोपालदृष्टान्तमूरीकृत्य नरेश्वरः । प्रजानां पालने यत्नं विदध्यान्नयवर्मना ॥१७॥
है, जो द्विज अरहन्त भगवान्के भक्त हैं वही मान्य गिने जाते हैं ॥१८५-१८६॥ "हम ही लोगोंको संसार-सागरसे तारनेवाले हैं, हम ही देव ब्राह्मण हैं और हम ही लोकसम्मत हैं अर्थात् सभी लोग हम ही को मानते हैं इसलिए हम राजाको धान्यका उचित अंश नहीं देते'' इस प्रकार यदि वे द्विज कहें तो उनसे पूछना चाहिए कि आप लोगोंमें अन्य वर्णवालोंसे विशेषतन क्यों है ? कदाचित् यह कहो कि हम जातिकी अपेक्षा विशिष्ट हैं तो आपका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जातिकी अपेक्षा विशिष्टता अनुभवमें नहीं आती है, कदाचित् यह कहो कि गुणकी अपेक्षा विशिष्टता है सो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आपलोग केवल नामके धारण करनेवाले हो, जो व्रतोंको धारण करनेवाले जैन ब्राह्मण हैं वे ही गुणोंसे अधिक हैं। आप लोग व्रतरहित, नमस्कार करनेके अयोग्य, दयाहीन, पशुओंका घात करनेवाले और म्लेच्छोंके आचरण करने में तत्पर हो इसलिए आप लोग धर्मात्मा द्विज नहीं हो सकते । इन सब कारणोंसे राजाओंको चाहिए कि वे इन द्विजोंको म्लेच्छोंके समान समझें और उनसे सामान्य प्रजाकी तरह ही धान्यका योग्य अंश ग्रहण करें। अथवा इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? जैनधर्मको धारण करनेवाले उत्तम द्विजोंको छोडकर प्रजाके समान आजीविका करनेवाले अन्य द्विज राजाओंके पूज्य नहीं हैं ॥१८७-१६२।।
जिस प्रकार ग्वाला आलस्यरहित होकर अपने गोधनकी व्याघ्र चोर आदि उपद्रवोंसे रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए ॥१९३॥ जिस प्रकार ग्वाला उन पशुओंके देखनेकी इच्छासे राजाके आनेपर भेंट लेकर उसके समीप' जाता है और धन सम्पदाके द्वारा उसे संतुष्ट करता है उसी प्रकार यदि कोई बलवान् राजा अपने राज्यके सन्मुख आवे तो वृद्ध लोगोंके साथ विचार कर उसे कुछ देकर उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए । चूंकि युद्ध बहुत-से लोगोंके विनाशका कारण है, उसमें बहुत-सी हानियाँ होती हैं और उसका भविष्य भी बुरा होता है अतः कुछ देकर बलवान् शत्रुके साथ सन्धि कर लेना ही ठीक है ॥१९४-१९६॥ इस प्रकार राजाको ग्वालाका दृष्टान्त स्वीकार कर नीतिमार्गसे
१ न भवथ । २ -धुपद्रवात् ल०, म०, प० । ३ गोमती। गोमान् गोमीस्यभिधानात् । गोमत्या- म०, ल०, प० । ४ क्षीरघृतादिविक्रयाज्जातधनसमद्ध्या। ५ अभिगच्छेत् । ६ सन्धानं कुर्यात् । ७ निष्कप्रदानादित्यर्थः। ८ उचितवस्तुवाहनप्रदानाद्यः । ९ सन्धि कर्तुं योग्यः । १० कुर्यात् ।