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आदिपुराणम्
गुरुसाक्षि तथा त्यक्तदेहाहारस्य तस्य वै। परीषहजयायत्ता सिद्धिरिष्टा महात्मनः ॥१२६॥ ततो ध्यायेदनुप्रेक्षाः कृती जेतुं परीषहान् । विनाऽनुप्रेक्षणेश्चित्तसमाधानं हि दुर्लभम् ॥१२७॥ 'प्रागभावितमेवाहं भावयामि न भावितम् । मावयामीति भावेन भावयेत्तत्त्वभावनाम् ॥१२८॥ समुत्सृजेदनात्मीयं शरीरादिपरिग्रहम् । आत्मीयं तु स्वसात्कुर्याद रत्नत्रयमनुत्तरम् ॥१२९॥ मनोव्याक्षेपरक्षार्थं ध्यायन्निति स धीरधीः । प्राणान् विसर्जयेदन्ते संस्मरन् परमेष्टिनाम् ॥१३०॥ तथा विसर्जितप्राणः प्रणिधानपरायणः । शिथिलिकृत्य कर्माणि शुभां गतिमथाश्नुते ॥१३॥ तस्मिन्नेव भवे शक्तः कृत्वा कर्मपरिक्षयम् । सिद्धिमाप्नोत्यशक्तस्तु त्रिदिवाग्रमवाप्नुयात् ॥१३२॥ ततश्च्युतः परिप्राप्तमानुष्यः परमं तपः । कृत्वान्ते निवृतिं याति निर्द्ध ताखिलबन्धनः ॥१३३॥ क्षत्रियो यस्त्वनात्मज्ञः कुर्यान्नात्मानुपालनम् । विषशस्त्रादिमिस्तस्य दुमृति,वभाविनी ॥१३४॥ दुम॒तश्च दुरन्तेऽस्मिन् भवावर्ते दुरुत्तरे । पतित्वाऽमुत्र दुःखानां दुर्गतौ भाजनं भवेत् ।।१३।। ततो मतिमताऽऽत्मीयविनिपातानुरक्षणे । विधेयोऽस्मिन् महायत्नो लोकद्वयहितावहे ॥१३६॥ कृतात्मरक्षणश्चैव प्रजानामनुपालने । राजा यत्नं प्रकुर्वांत राज्ञां मौलो ह्ययं गुगः ॥१३७॥
चाहिए ॥१२५।। इस प्रकार जिसने गुरुकी साक्षीपूर्वक शरीर और आहारका त्याग कर दिया है ऐसे महात्मा पुरुषको इष्टसिद्धि परीषहोंके विजय करनेके अधीन होती है अर्थात् जो परीषह सहन करता है उसीके इष्टकी सिद्धि होती है ॥१२६॥ इसलिए निपुण पुरुषको परीषह जीतनेके लिए अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करना चाहिए क्योंकि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवन किये बिना चित्तका समाधान कठिन है ॥१२७॥ जिसका पहले कभी चिन्तवन नहीं किया था ऐसे सम्यक्त्व आदिका चिन्तवन करता हूँ और जिसका पहले चिन्तवन किया था ऐसे मिथ्यात्व आदिका चिन्तवन नहीं करता इस प्रकारके भावोंसे तत्त्वोंकी भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिए ॥१२८|| जो आत्माके नहीं है ऐसे शरीर आदि परिग्रहका त्याग कर देना चाहिए और जो आत्माके हैं ऐसे सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रयका ग्रहण करना चाहिए ॥१२९॥ धीर वीर बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषको मनकी चंचलता नष्ट करनेके लिए इस प्रकार ध्यान करते हुए और पंचपरमेष्ठियोंका स्मरण करते हुए आयुके अन्त में प्राणत्याग करना चाहिए ॥१३०।। जो पुरुष ध्यानमें तत्पर रहकर ऊपर लिखे अनुसार प्राणत्याग करता है वह कर्मोको शिथिल कर शुभ गतिको प्राप्त होता है ।।१३१॥ जो समर्थ है वह उसो भवमें कर्मोका क्षय कर मोक्षको प्राप्त होता है और जो असमर्थ है वह स्वर्गके अग्रभाग अर्थात् सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त होता है ।।१३२॥ वह वहाँसे च्युत हो मनुष्यपर्याय प्राप्त कर और परम तपश्चरण कर आयुके अन्तर्मे समस्त कर्मबन्धनको नष्ट करता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है ॥१३३॥ आत्माका स्वरूप न जाननेवाला जो क्षत्रिय अपने आत्माको रक्षा नहीं करता है उसकी विष, शस्त्र आदिसे अवश्य ही अपमृत्यु होती है ॥१३४॥ और अपमृत्युसे मरा हुआ प्राणी दुःखदायी तथा कठिनाईसे पार होने योग्य इस संसाररूप आवर्तमें पड़कर परलोकमें दुर्गतियोंके दुःखका पात्र होता है ॥१३५॥ इसलिए बुद्धिमान् क्षत्रियको दोनों लोकोंमें हित करनेवाले, आत्माके इस विघ्नबाधाओंसे रक्षा करनेमें महाप्रयत्न करना चाहिए ॥१३६॥ इस प्रकार जिसने आत्माकी रक्षाकी है ऐसे राजाको प्रजाका पालन करनेमें प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि यह राजाओंका मौलिक गुण है ॥१३७॥
१ मध्यक्त्वादिकम् । २ मिथ्यात्वादिकम् । ३ मानसबाधाया नाशार्थम् । ४ एकाग्रतां गतः । ५-मुपाश्नुते अ, प०, स०, इ०, ल०, म० । ६ प्रजापालनयत्नः ।