________________
द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व
. ३४१ 'तत आमुत्रिकापायरक्षाविधिरनूद्यते । तद्रक्षणं च धर्मेण धर्मो ह्यापत्प्रतिक्रिया ॥११५॥ धर्मो रक्षत्यपायेभ्यो धर्माऽभीष्टफलप्रदः । धर्मः श्रेयस्करोऽमुत्र धर्मेणेहाभिनन्दथुः ॥११६॥ तस्माद्धमैकतानः सन् कुर्यादेष्यत्प्रतिक्रियाम् । एवं हि रक्षितोऽपायाद् भवेदात्मा भवान्तरे ॥११७॥ .. बह्वपायमिदं राज्यं त्याज्यमंव मनस्विनाम् । यत्र पुत्राः ससोदर्या वैरायन्ते निरन्तरम् ॥११८॥ अपि चात्र मनःखेदबहुले का सुखासिका । मनसो निर्वृतिं सौख्यमुशन्तीह विचक्षणाः ॥११९॥ राज्ये न सुखलेशोऽपि दुरन्ते दुरितावहे । सर्वतः शङ्कमानस्य प्रत्युतानासुखं महत् ॥१२०॥ ततो राज्यमिदं हेयमपथ्यमिव भेषजम् । उपादेयं तु विद्वद्भिस्तपः पथ्यमिवाशनम् ॥१२॥ इति प्रागेव निर्विद्य राज्ये भोगं त्यजेत् सुधीः । तथा त्यक्तुमशक्तोऽन्ते त्यजेद् राज्यपरिच्छदम् ॥१२२॥ कालज्ञानिभिरादिष्टे निर्णीत स्वयमेव वा । जीवितान्ते तनुत्यागमतिं दध्यादतः सुधीः ॥१२३॥ त्यागो हि परमो धर्मस्त्याग एव परं तपः । त्यागादिह यशोलाभः परत्राभ्युदयो महान् ॥१२॥ मत्वेति तनुमाहारं राज्यं च सपरिच्छदम् । त्यजेदायतने पुण्ये पूजाविधिपुरस्सरम् ॥१२५॥ .
होनेवाली रक्षा तो विद्वान् पुरुषोंको विदित ही है। ॥११४।। इसलिए अब परलोक सम्बन्धी अपायोंसे होनेवाली रक्षाकी विधि कहते हैं। परलोक सम्बन्धी अपायोंसे रक्षा धर्मके द्वारा ही हो सकती है क्योंकि धर्म ही समस्त आपत्तियोंका प्रतिकार है-उनसे 'बचनेका उपाय है ॥११५।। धर्म ही अपायोंसे रक्षा करता है, धर्म ही मनचाहा फल देनेवाला है, धर्म ही परलोकमें कल्याण करनेवाला है और धर्मसे ही इस लोकमें आनन्द प्राप्त होता है ।।११६॥ इसलिए धर्ममें एकचित्त होकर भविष्यत् कालमें आनेवाली विपत्तियोंका प्रतिकार करना चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे ही आत्माकी दूसरे भवमें विपत्तिसे रक्षा हो सकती है ॥११७॥ जिस राज्यके लिए पुत्र तथा सगे भाई आदि भी निरन्तर शत्रुता किया करते हैं और जिसमें बहुत अपाय हैं ऐसा यह राज्य बुद्धिमान् पुरुषोंको अवश्य ही छोड़ देना चाहिए ॥११८॥ एक बात यह भी है कि जिसमें मानसिक खेदकी बहुलता है ऐसे इस राज्यमें सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है क्योंकि इस संसार में पण्डितजन मनकी निराकुलताको ही सुख कहते हैं ॥११९॥ जिसका अन्त अच्छा नहीं है और जिसमें निरन्तर पाप उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे इस राज्यमें सुखका लेश भी नहीं है बल्कि सब ओरसे शंकित रहनेवाले पुरुषको इस राज्यमें बड़ा भारी दुःख बना रहता है ।।१२०।। इसलिए विद्वान् पुरुषोंको अपथ्य औषधिके समान इस राज्यका त्याग कर देना चाहिए और पथ्य भोजनके समान तप ग्रहण करना चाहिए ॥१२१॥ इस तरह बुद्धिमान् पुरुषको चाहिए कि वह राज्यके विषयमें पहलेसे ही विरक्त होकर भोगोपभोगका त्याग कर दे, यदि वह इस प्रकार त्याग करनेके लिए समर्थ न हो तो कमसे कम अन्त समय उसे राज्यके आडम्बरका अवश्य ही त्याग कर देना चाहिए ॥१२२।। इसलिए यदि कालको जाननेवाला निमित्तज्ञानी अपने जीवनका अन्त समय बतला दे अथवा अपने आप ही उसका निर्णय हो जावे तो बुद्धिमान् क्षत्रियको चाहिए कि वह उस समयसे शरीर परित्यागकी बुद्धि धारण करे अर्थात् सल्लेखना धारण करने में बुद्धि लगावे ॥१२३॥ क्योंकि त्याग ही परम धर्म है, त्याग ही परम तप है, त्यागसे ही इस लोकमें कीतिकी प्राप्ति होती है और त्यागसे ही परलोकमें महान् ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१२४॥ ऐसा मानकर क्षत्रियको किसी पवित्र स्थानमें रहकर पूजा आदिकी विधि करके शरीर आहार और चमर छत्र आदि उपकरणोंसे सहित राज्यका परित्याग कर देना १ अत अ० स०, म०, ल० । २ एकोदरे जाता । ३ वरं कुर्वन्ति । ४ सुखास्थता । ५ पुनः किमिति चेत् । ६ वैराग्यपरो भूत्वा । ७ आवासे । ८ पवित्रे ।