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द्विचत्वारिंशत्तम पर्व
'मध्येसभमथान्येयुनिविष्टो हरिविष्टरे । क्षात्रं वृत्तमुपादिक्षत्संहितान् पार्थिवान् प्रति ॥१॥ श्रयतां भो महामानः सर्वे क्षत्रियपुङ्गवाः । क्षतत्राणे नियुक्ताः स्थ यूयमायेन वेधसा ॥२॥ तत्त्राणे च नियुक्तानां वृत्तं वः पञ्चधोदितम् । तन्निशम्य यथाम्नायं प्रवर्तध्वं प्रजाहिते ॥३॥ तच्चेदं कुलमत्यात्मप्रजानामनुपालनम् । समञ्जसत्वं चेत्येवमुद्दिष्टं पञ्चभेदभाक् ॥४॥ कुलानुपालनं तत्र कुलाम्नायानुरक्षणम् । कुलोचितसमाचारपरिरक्षणलक्षणम् ॥५॥ क्षत्रियाणां कुलाम्नायः कीदृशश्चेनिशम्यताम् । आयेन वेधसा सृष्टः सर्गोऽयं क्षत्रपूर्वकः ॥६॥ स चैष मारतं वर्षमवतीर्णो दिवोऽग्रतः । पुरा भवे समाराध्य रत्नत्रितयमूर्जितम् ॥७॥ द्विरष्टौ भावनास्तत्र तीर्थकृत्वोपपादिनीः । भावयित्वा शुभोदर्का धुलोकाग्रमधिष्टितः॥८॥ तेनास्मिन् भारते वर्षे धर्मतीर्थप्रवर्तने । ततः कृतावतारेण क्षात्रसर्गः प्रवर्तितः ॥९॥ तत्कथं कर्मभूमित्वादद्यत्वे द्वितयी प्रजा । कर्तव्या रक्षणीयका प्रजान्या रक्षणोद्यता ॥१०॥ रक्षणाभ्युद्यता येऽत्र क्षत्रियाः स्युस्तदन्वयाः । सोऽन्वयोऽनादिसंतत्या बीजवृक्षवदिप्यते ॥११॥
अथानन्तर-किसी एक दिन सभाके बीच में सिंहासनपर बैठे हुए भरत इकट्ठे हुए राजाओंके प्रति क्षात्रधर्मका उपदेश देने लगे ॥१॥ वे कहने लगे कि हे समस्त क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ महात्माओ, आप लोगोंको आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने दुःखी प्रजाकी रक्षा करने में नियुक्त किया है ॥२॥ दुःखी प्रजाकी रक्षा करनेमें नियुक्त हुए आप लोगोंका धर्म पाँच प्रकारका कहा है उसे सुनकर तुम लोग शास्त्रके अनुसार प्रजाका हित करने में प्रवृत्त होओ ॥३॥ वह तुम्हारा धर्म कुलका पालन करना, बुद्धिका पालन करना, अपनी रक्षा करना, प्रजाकी रक्षा करना और समंजसपना इस प्रकार पाँच भेदवाला कहा गया है ॥४॥ उनमें से अपने कुलाम्नायकी रक्षा करना और कुलके योग्य आचरणकी रक्षा करना कुल-पालन कहलाता है ।।५॥ अब क्षत्रियोंका कुलाम्नाय कैसा है ? सो सुनिए । आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने क्षत्रपूर्वक ही इस सृष्टिकी रचना की है अर्थात् सबसे पहले क्षत्रियवर्णकी रचना की है ॥६॥ जिन्होंने पहले भवमें अतिशय श्रेष्ठ रत्नत्रयकी आराधना कर तथा तीर्थ कर पद प्राप्त करानेवाली
और शुभ फल देनेवाली सोलह भावनाओंका चिन्तवन कर स्वर्गलोकके सबसे ऊपर अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में निवास किया था वे ही भगवान् सर्वार्थसिद्धिसे आकर इस भारतवर्षमें अवतीर्ण हुए हैं ॥७-८॥ जिसमें धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनी है ऐसे इस भारतवर्ष में सर्वार्थसिद्धिसे अवतार लेकर उन्होंने क्षत्रियोंकी सृष्टि प्रवृत्त की है ॥९॥ वह क्षत्रियोंकी सृष्टि किस प्रकार प्रवृत्त हुई थी ? इसका समाधान यह है कि आज कर्मभूमि होनेसे प्रजा दो प्रकारकी पायी जाती है। उनमें एक प्रजा तो वह है जिसकी रक्षा करनी चाहिए और दूसरी वह है जो रक्षा करने में तत्पर है ॥१०॥ जो प्रजाको रक्षा करनेमें तत्पर है उसीकी वंशपरम्पराको क्षत्रिय कहते हैं यद्यपि यह वंश अनादिकालको सन्ततिसे बीज वृक्षके समान अनादि कालका है तथापि
१ सभामध्ये । २ निविष्टो ल०, म०। ३ क्षत्रियसंबन्धि । ४ मिलितान् । ५ सर्व-प०, ल०, म०। ६ भव प० । ७ श्रुत्वा । ८ श्रूयताम् । ९ क्षत्रशब्द । १० क्षेत्रम् । ११ पूर्वस्मिन् । १२ आश्रितः । १३ कृतावतारेण इ०, स०, अ० । १४ रक्षितुं योग्या।