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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व वागायतिशयैरेमिरन्वितोऽनन्यगोचरैः । भगवानिष्ठितार्थोऽर्हन् परमेष्ठी जगद्गुरुः ॥४६॥ न च तादृग्विधः कश्चित् पुमानस्ति मतान्तरे । ततोऽन्ययोग व्यावृत्त्या सिद्धमाप्तत्वमर्हति ॥४७॥ इत्याप्तानुमतं क्षात्रमिमं धर्ममनुस्मरन् । मतान्तरादनातीयात् स्वान्वयं विनिवर्तयेत् ॥४८॥ वृत्तादनात्मनीनाद्वीः स्यादेवमनुरक्षिता । तद्रक्षणाच्च संरक्षेत् क्षत्रियः क्षितिमक्षताम् ॥४६॥ उक्तस्यैवार्थतत्त्वस्य भूयोऽप्याविश्चिकीर्षया । निदर्शनानि वीण्यत्र वक्ष्यामस्तान्यनुक्रमात् ॥५०॥ व्यक्तये पुरुषार्थस्य स्यात् पूरुषनिदर्शनम् । तथा निगलदृष्टान्तः स संसारिनिदर्शनः ॥५१॥ ज्ञेयः पुरुषदृष्टान्तो नाम मुक्ततरात्मनोः। यन्निदर्शनभावेन मुक्त्यमुक्त्योः समर्थनम् ॥५२॥ संसारीन्द्रियविज्ञान ग्वीर्यसुखचारुताः । तन्वावासौ च निर्वेष्टुं यतते सुखलिप्सया ॥५३॥ मुक्तस्तु न तथा किन्तु गुणैरुक्कैरतीन्द्रियैः । परं सौख्यं स्वसाद्भूतमनुभुत निरन्तरम् ॥५४॥ "तत्रैन्द्रियकविज्ञानः स्वल्पज्ञानतया स्वयम् । परं शास्त्रोपयोगाय श्रयति ज्ञानवित्तकम् ॥१५॥ तथैन्द्रियकहकशक्तिः आत्माग्भिागदर्शनः । अर्थानां विप्रकृष्टानां" भवेत् संदर्शनोत्सुकः ॥५६॥ तथैन्द्रियिकवीर्यश्च सहायापेक्षयेप्सितम् । कार्य घटयितुं वान्छेत् स्वयं तत्साधनाक्षमः ॥५७॥
तत्रैन्द्रियसुखी कामभोगैरत्यन्तमुन्मनाः । वान्छेत् सुखं पराधीनमिन्द्रियार्थानुतर्षतः ॥५८॥ और बारह सभाएं होना यह सब अरहन्तदेवके भाग्यका अतिशय है ॥४५॥ जो किन्हीं दूसरोंमें न पाये जानेवाले इन वाणी आदिके अतिशयोंसे सहित हैं तथा कृतकृत्य हैं ऐसे भगवान् अरहन्त परमेष्ठी ही जगत्के गुरु हैं ॥४६।। अन्य किसी भी मतमें ऐसा-अरहन्तदेवके समान कोई पुरुष नहीं है इसलिए अन्य योगको व्यावृत्ति होनेसे अरहन्तदेवमें ही आप्तपना सिद्ध होता है ॥४७॥ इस प्रकार आप्तके द्वारा कहे हुए इस क्षात्रधर्मका स्मरण करते हुए क्षत्रियोंको अनाप्त पुरुषोंके द्वारा कहे हुए अन्य मतोंसे अपने वंशको पृथक् करना चाहिए ॥४८॥ इस प्रकार जिनमें आत्माका हित नहीं है ऐसे आचरणसे अपनी बुद्धिकी रक्षा की जा सकती है और बुद्धिकी रक्षासे ही क्षत्रिय अखण्ड पृथिवीकी रक्षा कर सकता है ॥४६॥ ऊपर जो पदार्थका स्वरूप कहा है उसीको फिर भी प्रकट करनेकी इच्छासे यहाँपर क्रमानुसार तीन उदाहरण कहते हैं ॥५०॥ अपना पुरुषार्थ प्रकट करनेके लिए पहला पुरुषका दृष्टान्त है, दूसरा निगल अर्थात् बेड़ीका दृष्टान्त है और तीसरा संसारी जीवोंका दृष्टान्त है ॥५१।। जिस उदाहरणसे मुक्त और कर्मबन्ध सहित जीवोंके मोक्ष और बन्ध दोनों अवस्थाओंका समर्थन किया जावे उसे पुरुषका दृष्टान्त अथवा उदाहरण जानना चाहिए ॥५२॥ यह संसारी जीव सुख प्राप्त करनेकी इच्छासे इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख और सुन्दरताको शरीररूपी घरमें हो अनुभव करनेका प्रयत्न करता है ॥५३॥ परन्तु मुवत जीव ऐसा नहीं करता वह तो ऊपर कहे हुए अतीन्द्रिय गुणोंसे अपने स्वाधीन हुए परम सुखका निरन्तर अनुभव करता रहता है ॥५४।। इनमें-से ऐन्द्रियिक ज्ञानवाला संसारी जीव स्वयं अल्पज्ञानी होनेसे शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए ज्ञानका चिन्तवन करनेवाले अन्य पुरुषोंका आश्रय लेता है ॥५५।। इसी प्रकार जिसके इन्द्रियोंसे देखनेकी शक्ति है ऐसा पुरुष अपने समीपवर्ती कुछ पदार्थों को ही देख सकता है इसलिए वह दूरवर्ती पदार्थों को देखनेके लिए सदा उत्कण्ठित होता रहता है ॥५६॥ जिसके इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ वीर्य है वह किसी इष्ट कार्यको स्वयं करनेमें असमर्थ होकर उसे दूसरेकी सहायताकी अपेक्षासे करना चाहता है ॥५७॥ तथा जिसके इन्द्रियजनित सुख है ऐसा पुरुष काम भोगादिकोंसे १ अन्येषु वागाद्यतिशययोगाभावात् । २ जिने । ३ आप्ताभावप्रोक्तात् । ४ अनात्महितादपसार्य । ५ देहालयो। ६ अनुभवितुम् । ७ इन्द्रियानिन्द्रियज्ञानिनोर्मध्ये । ८-चित्तकम् प० । चिन्तकम् ल०, म० । ९ इन्द्रियजनितदर्शनशक्तिमान् । १० वस्तुनि द्विधाप्रविभक्ते आसन्नभागदर्दनः । ११ दूरवर्तिनाम् । १२ समुत्कण्ठः । १३ विषयवाञ्छया।