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आदिपुराणम् * इति पृष्टवते तस्मै व्याचष्टे स' विदांवरः । तथ्यं मुक्तिपथं धर्म विचारपरिनिष्ठितम् ॥११॥ विद्धि सत्योद्यमाप्तीयं वचः श्रेयोऽनुशासनम् । अनाप्तोपज्ञमन्यत्तु वची वाङ्मलमेव तत् ॥१२॥ विरागः सर्ववित् सार्वः सूक्तसूनृतपूतवाक् । आप्तः सन्मार्गदेशी यस्तदाभासास्ततोऽपरे ॥१३॥ रूपतेजोगुणस्थानध्यानलक्ष्यनुवर्तिभिः । काङक्ष्यता विजयज्ञानदृष्टिवीर्यसुखामृतैः ॥१४॥ प्रकृष्टो यो गुणैरेभिश्चक्रिकल्पा धिपादिषु । स आप्तः स च सर्वज्ञः स लोकपरमेश्वरः ॥१५॥ ततः श्रेयोऽर्थिना श्रेयं मतमाप्तप्रणेतृकम् । अव्याहतमनालोढपूर्व सर्वज्ञमानिभिः ॥१६॥ हेत्वाज्ञायुक्तमद्वैत दीतं गम्भीरशासनम् । अल्पाक्षरमसन्दिग्धं वाक्यं स्वायम्भुवं विदुः ॥१॥ "इतश्च तत्प्रमाणं स्यात् श्रुतमन्त्रक्रियादयः । पदार्थाः सुस्थितास्तत्र” यतो नान्यमतोचिता ।।१८॥ यथाक्रममतो मस्तान्पदार्थान् प्रपञ्चतः । यैः सनिःकृष्यमाणाः स्युर्दुःस्थिताः परसूनयः ॥१६॥ वेदः पुराणं स्मृतयः चारित्रं च क्रियाविधिः । मन्त्राश्च देवतालिङ्गमाहाराद्याश्च शुद्धयः ॥२०॥ एतेऽर्था" यत्र तत्वेन प्रणीताः परमर्षिणा । स धर्मः स च सन्मार्गः तदाभासाः स्युरन्यथा ॥२१॥
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हैं ॥१०॥ इस प्रकार पूछनेवाले उस भव्य पुरुषके लिए महाज्ञानी मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य सत्य, विचारसे परिपूर्ण तथा मोक्षके मार्गस्वरूप धर्मका व्याख्यान करते हैं ॥११॥ वे कहते हैं - हे भव्य, मोक्षका उपदेश देनेवाले आप्तके वचनको ही तू सत्य वचन मान और इसके विपरोत जो वचन आप्तका कहा हुआ नहीं है उसे केवल वाणीका मल ही समझ ॥१२॥ जो वीतराग है, सर्वज्ञ है, सबका कल्याण करनेवाला है, जिसके वचन समीचीन, सत्य और पवित्र हैं, तथा जो उत्कृष्ट – मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला है वह आप्त कहलाता है, इनसे भिन्न सभी आप्ताभास हैं अर्थात् आप्त न होनेपर भी आप्तके समान मालूम होते हैं ॥१३॥ जो रूप, तेज, गुणस्थान, ध्यान, लक्षण, ऋद्धि, दान, सुन्दरता, विजय, ज्ञान, दृष्टि, वीर्य और सुखामृत इन गुणोंसे चक्रवर्ती तथा इन्द्रादिकोंसे भी उत्कृष्ट है वही आप्त है, सर्वज्ञ है और समस्त लोकोंका परमेश्वर है ॥१४-१५।। इसलिए जो आप्तका कहा हुआ है, जिसका कोई खण्डन नहीं कर सकता और अपने-आपको सर्वज्ञ माननेवाले पुरुष जिसका स्पर्श भी नहीं कर सके हैं ऐसा जैन मत है। कल्याणकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंके लिए कल्याणकारण है ।१६।। जो युक्ति तथा आगमसे युक्त है, अनुपम है, देदीप्यमान है, जिसका शासन गम्भीर है, जो अल्पाक्षरवाला है और जिसके पढ़नेसे किसी प्रकारका सन्देह नहीं होता ऐसा वाक्य ही अरहन्त भगवान्का कहा हुआ कहलाता है ।।१७।। चूंकि अरहन्तदेवके मतमें अन्य मतोंमें नहीं पाये जानेवाले शास्त्र, मन्त्र तथा क्रिया आदि पदार्थों का अच्छी तरह निरूपण किया गया है इसलिए वह प्रमाणभूत हैं ॥१८॥ हे वत्स, मैं यथाक्रमसे विस्तारके साथ अपदार्थोंका निरूपण करता हूँ क्योंकि उन पदार्थों के समीप आनेपर अन्य मतोंके वचन दुष्ट जान पड़ते हैं ॥१९।। जिसमें वेद, पुराण, स्मृति, चारित्र, क्रियाओंकी विधि, मन्त्र, देवता, लिंग और आहार आदिकी शुद्धि इन पदार्थोंका यथार्थ रीतिसे परमर्षियोंने निरूपण किया है वही धर्म है और वही समीचीन मार्ग है । इसके
१ योगीन्द्रः । २ सत्यवचनम् । ३ एवंविधलक्षणादन्ये । ४ लक्ष्मद्धिदत्तिभिः अ०, प०, द०, स०, इ०, ल० । ५ कान्तता अ०, ५०, इ०, स०, द०, ल०। आदरणीयता। ६ इन्द्र। ७ ततः कारणात् । ८ पूर्वस्मिन्ननालीढमस्पृष्टम् । ९ युक्त्यागमपरमागमाभ्यां कलितः । १० अद्वितीयम् । ११ आप्तवचनतः । १२ मतम् । १३ मते । १४ विस्तरतः। १५ पदार्थः । १६ निघर्षणं क्रियमाणाः । समीपं गम्यमाना बा। १७ कुतीर्थ्यसूचकाः । १८ पदार्थाः ।