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आदिपुराणम् . या सुरेन्द्रपदप्राप्तिः पारिवाज्यफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनुवर्णिता ॥२०१॥
इति सुरेन्द्रता। साम्राज्यमाधिराज्यं स्याच्चक्ररत्नपुरःसरम् । निधिरत्नसमुद्भूतं भोगसंपत्परम्परम् ॥२०२॥
इति साम्राज्यम् । आर्हन्त्यमहतो भावो कर्म वेति परा क्रिया । यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसंपदः ॥२०३॥ याऽसौ दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याण संपदाम् । तदाहन्स्यमिति ज्ञेयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम् ॥२०॥
इत्यान्त्यिम् । भवबन्धनमुक्तस्य यावस्था परमात्मनः । परिनिर्वृत्तिरिष्टा सा परं निर्वाणमित्यपि ॥२०५॥ कृत्स्नकर्ममलापायात् संशुद्धिर्याऽन्तरात्मनः । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः सानाभावो न गुणोच्छिदाँ ॥
इति निर्वृतिः। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कन्वयक्रियाः । सप्तैताः परमस्थानसंगतियत्र योगिनाम् ॥२०७॥ योऽनुतिष्टत्यतन्द्रालुः क्रिया ह्येतास्त्रिधोदिताः । सोऽधिगच्छेत् परं धाम यत्संप्राप्ती परं शिवम् ॥२०॥
पुष्पिताग्रावृत्तम् जिनमतविहितं पुराणधर्म य इममनुस्मरति क्रियानिबद्धम् । अनुचरति च पुण्यधीः स भन्यो भवभयबन्धनमाशु निर्धनाति ॥२०९॥
को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्रज्यको ग्रहण करना चाहिए ॥२००॥ यह तीसरी पारिव्रज्य क्रिया है।
पारिव्रज्यके फलका उदय होनेसे जो सुरेन्द्र पदकी प्राप्ति होती है वही यह सुरेन्द्रता नामकी क्रिया है इसका वर्णन पहले किया जा चुका है ॥२०१॥ यह चौथी सुरेन्द्रता क्रिया है ।
__ जिसमें चक्र रत्नके साथ-साथ निधियों और रत्नोंसे उत्पन्न हुए भोगोपभोगरूपी सम्पदाओंकी परम्परा प्राप्त होती है ऐसा चक्रवर्तीका बड़ा भारी राज्य साम्राज्य कहलाता है ॥२०२॥ यह पाँचवीं साम्राज्यक्रिया है। . अर्हत् परमेष्ठीका भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट किया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं । इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणकरूप सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है ॥२०३।। स्वर्गसे अवतीर्ण हुए अर्हन्त परमेष्ठीको जो पंचकल्याणकरूप सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है उसे आर्हन्त्य किया जानना चाहिए, यह आर्हन्त्यक्रिया तीनों लोकोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाली है ॥२०४।। यह छठी आर्हन्त्यक्रिया है ।
संसारके बन्धनसे मुक्त हुए परमात्माकी जो अवस्था होती है उसे परिनिर्वृति कहते हैं । इसका दूसरा नाम परनिर्वाण भी है ।।२०५।। समस्त कर्मरूपी मलके नष्ट हो जानेसे जो अन्तरात्माकी शुद्धि होती है उसे सिद्धि कहते हैं, यह सिद्धि अपने आत्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप है अभावरूप नहीं है और न ज्ञान आदि गुणोंके नाशरूप ही है ॥२०६।। यह सातवीं परिनिर्वृति क्रिया है। - इस प्रकार आगमके अनुसार ये सात कर्जन्वय क्रियाएँ कही गयी हैं, इन क्रियाओंका पालन करनेसे योगियोंको परम स्थानकी प्राप्ति होती है ॥२०७॥ जो भव्य आलस्य छोड़कर निरूपण की हुई इन तीन प्रकारको क्रियाओंका अनुष्ठान करता है वह उस परमधाम (मोक्ष) को प्राप्त होता है जिसके प्राप्त होनेपर उसे उत्कृष्ट सुख मिल जाता है ॥२०८।। पवित्र बुद्धिको धारण करने १ फलोदये प० । २ तुच्छाभावरूपो न। ३ 'बुद्धिसुखदुःखादिनयानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्ष' इति मतप्रोक्तो मोक्षो न । ४ सुखम् ।