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आदिपुराणम्
स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसक्रियः । देवैर्विरचितं दीप्रमास्कन्दत्युपधानकम् ॥१०॥ त्यक्तशीतातपत्राण सकलात्मपरिच्छदः । त्रिभिश्छत्रैः समुद्भासिरौद्भासते स्वयम् ॥१८॥ विविधव्यजन त्यागादनुष्टिततपोविधिः । चामराणां चतुःषष्ट्या वीज्यते जिनपर्यये ॥१२॥ उज्झितानकसंगीतघोषः कृत्वा तपोविधिम् । स्याद् द्यदुन्दुभिनिर्घोषैर्युष्यमाणजयोदयः ॥१८३॥ उद्यानादिकृतां छायामपास्य स्वां तपो व्यधात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोकमहाद्रुमः ॥१८४॥ स्वं स्वापतेयमुचितं त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निधिमिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दरतः ॥१८५॥ गृहशोभा कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगताम् ॥१८६॥ तपोऽवगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगजनतास्थानसह स्यादवगाहनम् ॥१८७॥ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात् ' क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीनत्रिजगत्क्षेत्रमैश्यसस्योपजायते ॥१८॥ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयम् । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोताम् ॥१८९॥ स्वामिष्टभृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयम् । परमाप्तपदप्राप्ता वध्यास्ते त्रिजगत्सभाम् ॥१९॥
रहित हो जाता है और केवल अपनी भुजापर शिरका किनारा रखकर पृथिवीके ऊँचे-नीचे प्रदेशपर शयन करता है वह महाअभ्युदय ( स्वर्गादिको विभूति ) को पाकर जिन हो जाता है, उस समय सब लोग उसका आदर-सत्कार करते हैं और वह देवोंके द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकियाको प्राप्त होता है ।।१७९-१८०॥ जो मनि शीतल छत्र आदि अपने समस्त परिग्रहका त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नोंसे युक्त तीन छत्रोंसे सुशोभित होता है ॥१८१॥ अनेक प्रकारके पंखाओंके त्यागसे जिसने तपश्चरणकी विधिका पालन किया है ऐसा मनि जिनेन्द्रपर्यायमें चौंसठ चमरोंसे वीजित होता है अर्थात उसपर चौंसठ चमर ढलाये जाते हैं ॥१८२॥ जो मनि नगाड़े तथा संगीत आदिकी घोषणाका त्याग कर तपश्चरण करता है उसके विजयका उदय स्वर्गके दुन्दुभियोंके गम्भीर शब्दोंसे घोषित किया जाता है ॥१८३॥ चूंकि पहले उसने अपने उद्यान आदिके द्वारा की हुई छायाका परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिए ही अब उसे ( अरहन्त अवस्थामें ) महाअशोक वृक्षकी प्राप्ति होती है ॥१८४॥ जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्वभावको प्राप्त होता है वह स्वयं आकर दूर दरवाजेपर खड़ी हुई निधियोंसे सेवित होता है अर्थात् समवसरण भूमिमें निधियाँ दरवाजेपर खड़े रहकर उसकी सेवा करती हैं ॥१८५॥ जिसकी रक्षा सब ओरसे की गयी थी ऐसी घरकी शोभाको छोड़कर इसने तपश्चरण किया था इसीलिए श्रीमण्डपकी शोभा अपने-आप इसके सामने आती है ॥१८६॥ जो तप करनेके लिए सघन वनमें निवास करता है उसे तीनों जगत्के जीवोंके लिए स्थान दे सकनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकोंके समस्त जीव सुखसे स्थान पा सकते हैं ॥१८७।। जो क्षेत्र मकान आदिका परित्याग कर शुद्ध आत्माको प्राप्त होता है उसे तीनों जगत्के क्षेत्रको अपने अधीन रखनेवाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१८८॥ जो मुनि आज्ञा देनेका अभिमान छोड़कर मौन धारण करता है उसे सुर और असुरोंके द्वारा शिरपर धारण की हुई उत्कृष्ट आज्ञा प्राप्त होती है अर्थात उसकी आज्ञा सब जीव मानते हैं ॥१८९॥ जो यह मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदिकी सभाका परित्याग करता है इसलिए उत्कृष्ट अरहन्त पदकी प्राप्ति होनेपर
१ उपवहम् । २ छत्र । ३ चामर । ४ अर्हत्पर्याये सति । ५ स्वदुन्दुभिः । ६ धनम् । 'द्रव्यं वृत्तं स्वापतेयं रिक्थं दृक्थं धनं वसु' इत्यभिधानात् । ७ निर्गमत्वं गतः । ८ अग्रेसरताम् । ९ प्रवेशनात् । १० आत्मस्वरूपत्वम् । 'क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः' इत्यभिधानात् ।