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चत्वारिंशत्तम पर्व
अथातः संग्रवश्यामि क्रियासूत्तरचूलिकाम् । विशेषनिर्णयो यत्र क्रियाणां तिमृणामपि ॥१॥ तत्रादौ तावदुम्नेष्ये क्रियाकल्पप्रक्लाये । मन्त्रोद्धारं क्रियासिद्धिर्मन्त्राधीना हि योगिनाम् ॥२॥ आधानादि क्रियारम्भे पूर्वमेव निवेशयेत् । त्रीणिच्छत्राणि चक्राणां त्रयं त्रींश्च हविर्भुजः ॥३॥ मध्येवेदि जिनेन्द्रार्चाः स्थापयेच्च यथाविधि । मन्त्रकल्पोऽयमाम्नातस्तत्र तत्पूजनाविधौ ॥४॥ नमोऽन्तो नीरजश्शब्दश्चतुर्थ्यन्तोऽत्र पठ्यताम् । जलेन भूमिबन्धार्थ परा शुद्विस्तु तत्फलम् ॥५॥
(नीरजसे नमः ). दर्भास्तरणसंबन्धस्ततः पश्चादुदीर्यताम् । विघ्नोपशान्तये दर्पमथनाय नमः पदम् ॥६॥
(दर्पमथनाय नमः) गन्धप्रदानमन्त्रश्च शीलगन्धाय वै नमः । ( शीलगन्धाय नमः) पुष्पप्रदानमन्त्रोऽपि विमलाय नमः पदम् ॥७॥ (विमलाय नमः )
अथानन्तर-आगे इन क्रियाओंकी उत्तरचूलिकाका कथन करेंगे जिससे कि इन तीनों क्रियाओंका विशेष निर्णय किया गया है ।।१।। इस उत्तरचूलिकामें भी सबसे पहले क्रियाकल्प अर्थात् क्रियाओंके समूहकी सिद्धि के लिए मन्त्रोंका उद्धार करूंगा अर्थात् मन्त्रोंकी रचना आदिका निरूपण करूँगा सो ठीक ही है क्योंकि मुनियोंके कार्यकी सिद्धि भी मन्त्रोंके हो अधीन होती है ॥२॥ आधानादि क्रियाओंके प्रारम्भमें सबसे पहले तीन छत्र, तीन चक्र और तीन अग्नियाँ स्थापित करना चाहिए ॥३॥ और वेदीके मध्य भागमें विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा विराजमान करनी चाहिए । उक्त क्रियाओंके प्रारम्भमें उन छत्र, चक्र, अग्नि तथा जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाकी जो पूजा की जाती है वह मन्त्रकल्प कहलाता है ॥४॥ इन क्रियाओंके करते समय जलसे भूमि शुद्ध करनेके लिए जिसके अन्तमें नमः शब्द लगा हुआ है ऐसे नीरजस् शब्दको चतुर्थीके एकवचनका रूप पढ़ना चाहिए अर्थात् 'नीरजसे नमः' ( कर्मरूप धूलिसे रहित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिए । इस मन्त्रका फल उत्कृष्ट विशुद्धि होना है ।।५।। तदनन्तर डाभका आसन ग्रहण करना चाहिए और उसके बाद विघ्नोंको शान्त करने के लिए 'दर्पमथनाय नमः' ( अहंकारको नष्ट करनेवाले भगवान्को नमस्कार हो) इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए ॥६॥ गन्ध समर्पण करनेका मन्त्र है 'शीलगन्धाय नमः' ( शील रूप सुगन्ध धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो ) । तथा पुष्प देनेका मन्त्र है 'विमलाय
१ उपरितनांशं यत् चुलिकायाम् । २ गर्भान्वयादीनाम् । ३ वक्ष्ये । ४ क्रियाकलापकरणार्थम् । ५ अग्नीन् । ६ वेदिमध्ये । ७ गर्भाधानादिक्रियारम्भे । ८ छत्रत्रयादिपूजन। ९ भूमिसंयोगार्थं भूमिसे चनार्थमित्यर्थः । १० जलसेचनफलम् ।