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आदिपुराणम् त्वरपुत्रा' इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरजीविनः । इत्युदाहृत्य सस्याहे तत्क्षेप्तव्यं महीतले ॥१२४॥ क्षीरवृक्षोपशाखाभिरुपहृत्य च भूतलम् । स्नाप्पा तत्रास्य मानाऽसौ सुखोष्णमन्त्रितैर्जलैः ॥१२५॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्यविषयं द्विरुदीरयेत् । पदमासन्नभव्येति तद्वद् विश्वेश्वरेत्यपि ॥१२६॥ . तत ऊर्जितपुण्येति जिनमातृपदं तथा । स्वाहान्तो मन्त्र एष स्यान्मातुः सुस्नानसंविधौ ॥१२७॥
चूर्णिः-सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये विश्वेश्वरे विश्वेश्वरे ऊर्जितपुण्ये अर्जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा ।
यथा जिनाम्बिका पुनकल्याणान्यभिपश्यति । तथेयमपि मत्पत्नीत्यास्थयेयं विधिं भजेत् ॥१२८॥ तृतीयेऽहनि चानन्तज्ञानदी भवेत्यमुम् । आलोकयेत्समुक्षिप्य निशि ताराङ्कितं नमः ॥२९॥ पुण्याहघोषणापूर्व कुर्याद् दानं च शक्तितः । यथायोग्यं विदध्याञ्च सर्वस्याभयबोषणाम् ॥१३०॥ जातकर्मविधिः सोऽयमाम्नातः पूर्वसूरिभिः। यथायोगमनुष्ठेयः सोऽद्यत्वेऽपि द्विजोत्तमैः ॥१३१॥ नामकर्मविधाने च मन्त्रोऽयमनुकीय॑ते । सिद्धार्चनविधौ सत मन्त्राः प्रागनुवर्णिताः ॥१३२॥
ततो दिव्याष्टसहस्रनामभागी भवादिकम् । पदत्रितयमुच्चार्य मन्त्रोऽत्र परिवर्त्यताम् ॥१३३॥ .. चूर्णिः-'दिव्यास्त्रसहस्रनाममागी भव, विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी मव'। मत्पुत्राः चिरंजीविनो भूयासुः' (हे पृथ्वी तेरे पुत्र-कुलपर्वतोंके समान मेरे पुत्र भी चिरंजीवी हों) यह कहकर धान्य उत्पन्न होनेके योग्य खेतमें जमीनपर वह मल डाल देना चाहिए ॥१२२-१२४॥ तदनन्तर क्षीर वृक्षको डालियोंसे पृथिवीको सुशोभित कर उसपर उस पुत्र की माताको बिठाकर मन्त्रित किये हुए सुहाते गरम जलसे स्नान कराना चाहिए ॥१२५॥ माताको स्नान करानेका मन्त्र यह है - प्रथम ही सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदको दो बार कहना चाहिए फिर आसन्नभव्या, विश्वेश्वरी, अजितपुण्या, और जिनमाता इन पदोंको भी सम्बोधनान्त कर दो-दो बार बोलना चाहिए और अन्तमें स्वाहा शब्द पढ़ना चाहिए। भावार्थ - सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि जितपुण्ये जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टि, हे निकटभव्य, हे सबको स्वामिनी, हे अत्यन्त पुण्य संचय करनेवाली, जिनमाता तू कल्याण करनेवाली हो) यह मन्त्र पुत्रकी माताको स्नान कराते समय बोलना चाहिए ॥१२६-१२७॥ जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवको माता पुत्रके कल्याणोंको देखती है उसी प्रकार यह मेरी पत्नी भी देखे ऐसी श्रद्धासे यह स्नानकी विधि करनी चाहिए ॥ १२८॥ तीसरे दिन रातके समय 'अनन्तज्ञानदी भव' (तू अनन्तज्ञानको देखनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर उस पुत्रको गोदीमें उठाकर ताराओंसे सुशोभित आकाश दिखाना चाहिए ॥ १२९ ॥ उसी दिन पुण्याहवाचनके साथ-साथ शक्तिके अनुसार दान करना चाहिए और जितना बन सके उतना सब जीवोंके अभयकी घोषणा करनी चाहिए ॥ १३० ॥ इस प्रकार पूर्वाचार्योंने यह जन्मोत्सवकी विधि मानी है - कही है । उत्तम द्विजको आज भी इसका यथायोग्य रीतिसे अनुष्ठान करना चाहिए ॥ १३१ ॥
अब आगे नामकर्म करते समय जिन मन्त्रोंका प्रयोग होता है उन्हें कहते हैं-इस विधिमें सिद्ध भगवान्को पूजा करनेके लिए जिन सात पोठिका मन्त्रोंका प्रयोग होता है उन्हें पहले ही 'कह चुके हैं। उनके आगे 'दिव्याष्टसहसनामभागी भव' आदि तीनों पदोंका उच्चारण कर मन्त्र परिवर्तित कर लेना चाहिए अर्थात् 'दिव्याष्टसहसूनामभागी भव' (एक हजार आठ दिव्य नामोंका पानेवाला हो), "विजयाष्टसहसूनामभागी भव' (विजयरूप एक हजार आठ १ कुलपर्वता इव । २ अलंकृत्येत्यर्थः । ३. विश्वेश्वरीत्यपि ल० । ४ एवं बुद्ध्या । ५ पुत्रम् ।