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आदिपुराणम्
sored परिज्ञानहानये । शासतोऽस्याविपक्षां क्ष्मां कृतं संध्यादिचया ॥ १३८ ॥ राजविद्याश्वतत्रोऽभूः कदाचिच्च कृतक्षणः" । व्याचख्यौ राजपुत्रेभ्यः ख्यातये स विचक्षणः ॥ १३६ ॥ कदाचिन्निधिरत्नानामकरोत्स निरीक्षणम् । भाण्डागारपदे तानि तस्य तन्त्र पदेऽपि च ॥ १४० ॥ कदाचिद्धर्मशास्त्रेषु या: स्युर्विप्रतिपत्तयः । निराचकार ताः कृत्स्नाः ख्यापयन् विश्वविन्मतम् ।१४१| आसोपज्ञेषु तत्त्वेषु कश्चित् संजातसंशयान् । ततोऽपाकृत्य संशोतेस्तत्तत्त्वं निरणीनयत् ॥ १४२॥ तथाऽसावर्यशास्त्रार्थे ४ कामनीतौ च पुष्कलम् । प्रावीण्यं प्रथयामास यथात्र न परः कृती ॥ १४३ ॥ 'हस्तितन्त्रेऽश्वतन्त्रे च दृष्ट्वा स्वातन्त्र्य मीशितुः । मूलतन्त्रस्य कर्ताऽयमित्यास्था" तद्विदामभूत् ॥ 'आयुर्वेदे स दीर्घायुरायुर्वेदो नु मूर्तिमान् । इति लोको निरारेकं श्लाघते स्म निधीशिनम् ॥ १४५ ॥ sa" विद्यायां स कृती २ वागलंकृतौ । स छन्दसांप्रतिच्छन्द" इत्यासीत् संमतः सताम्॥ १४६ ॥ "तदुपज्ञं निमित्तानि शाकुनं तदुपक्रमम् । तत्सर्गो"ज्योतिषां ज्ञानं तन्मतं तेन तत्त्रयम् ॥३४७॥
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प्रसिद्धि के लिए ही कभी
समस्त पृथिवी जीत ली है और जो इस भरतक्षेत्र में स्वतन्त्र हैं ऐसे उन भरतको अपने तथा परराष्ट्र की कुछ भी चिन्ता थी, यदि चिन्ता नहीं थी, तो केवल तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्रकी ही चिन्ता थी ॥ १३७ ॥। उन्होंने अपना अज्ञान नष्ट करनेके लिए ही छह गुणोंका अभ्यास किया था क्योंकि जब वे शत्रुरहित पृथिवीका पालन करते थे तब उन्हें सन्धि विग्रह आदिकी चर्चा क्या प्रयोजन था ।। १३८ || अतिशय विद्वान् महाराज भरत केवल कभी बड़े उत्साह के साथ राजपुत्रोंके लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार राजविद्याओं का व्याख्यान करते थे || १३९ || वे कभी - कभी निधियों और रत्नोंका भी निरीक्षण करते थे। क्योंकि निधियों और रत्नोंमें से कुछ तो उनके भाण्डार में थे और कुछ उनकी सेनामें थे ।।१४०॥ कभी-कभी वे सर्वज्ञदेवका मत प्रकट करते हुए धर्मशास्त्र में जो कुछ विवाद थे उन सबका निराकरण करते थे || १४१ || भगवान् अरहन्तदेवके कहे हुए तत्त्वों में जिन किन्हीं को सन्देह उत्पन्न होता था उन्हें वे उस सन्देहसे हटाकर तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय कराते थे ॥ १४२ ॥ इसी प्रकार वे अर्थशास्त्र के अर्थ में और कामशास्त्रमें अपना पूर्ण चातुर्य इस तरह प्रकट करते थे कि फिर इस संसार में उनके समान दूसरा चतुर नहीं रह जाता था || १४३ ॥ हस्तितन्त्र और अश्वतन्त्र में महाराज भरतकी स्वतन्त्रता देखकर उन शास्त्रोंके जाननेवाले लोगोंको यही विश्वास हो जाता था कि इन सबके मूल शास्त्रोंके कर्ता यही हैं ।। १४४ || आयुर्वेद के विषय में तो सब लोग निधियोंके स्वामी भरतकी बिना किसी शंकाके यही प्रशंसा करते थे कि यह दीर्घायु क्या मूर्तिमान् आयुर्वेद ही है अर्थात् आयुर्वेदने हो क्या भरतका शरीर धारण किया है || १४५ ।। इसी प्रकार सज्जन लोग यह भी मानते थे कि वे व्याकरण - विद्या में कुशल हैं, शब्दालंकार में निपुण हैं, और छन्दशास्त्रके प्रतिबिम्बं हैं ॥ १४६ ॥ निमित्तशास्त्र सबसे पहले उन्हीं के बनाये हुए हैं, शकुनशास्त्र उन्हींके कहे हुए हैं और ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान उन्हीं
१ चक्रिणा । २ पर्याप्तम् । अलमित्यर्थः । ३ सन्धिविग्रहभावादिविचारेण । ४ आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चतस्रो राजविद्याः । ५ कृतोत्साहः । ६ वदति स्म । ७ सैन्यस्थाने परिग्रहे बभूवुरित्यर्थः । ८ विसंवादाः । ९ निराकृतवान् । १० प्रकटीकुर्वन् । ११ सर्वज्ञमतम् । १२ संशयात् । १३ निर्णयमकारयत् । १४ नीतिशास्त्रार्थे । १५ कुशलः । १६ गंजशास्त्रे । १७ मूलशास्त्रस्य । १८ इति बुद्धिः । १९ वैद्यशास्त्रे । २० निःशङ्कम् । २१ व्याकरणशास्त्रमधीतवान् । २२ - कुशलः । २३ शब्दालंकारे । २४ प्रतिनिधिः । २५ तदुपज्ञनिमित्तानि ल०, म० । तेन प्रथमोक्तम् । २६ शकुनशास्त्रम् । २७ तेन प्रथममुपक्रान्तम् । २८ तस्य भरतस्य सृष्टि: । २९ ज्योतिषशास्त्रम् । ३० तेन कारणेन । ३१ निमित्तादित्रयम् ।