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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
३२७ तत्रोपायनसंपत्त्या समायातान् महत्तमान्' । वचोहरांश्च संमान्य कृतकार्यान् व्यसर्जयत् ॥१२५॥ कलाविदश्च नृत्यादिदर्शनैः समुपस्थितान् । पारितोषिकदानेन महता समतर्पयत् ॥१२६॥ ततो विसर्जितास्थानः प्रोत्थाय नृपविष्टरात् । स्वेच्छाविहारमकरोद् विनोदैः सुकुमारकैः ॥१२७॥ ततो मध्यंदिनेऽभ्यणे कृतमजनसंविधिः । तनुस्थितिं स निवर्त्य निरविक्षत् प्रसाधनम् ॥१२८॥ चामरोत्क्षेपताम्बूलदानसं वाहनादिमिः। परिचेरुरुपेत्यैनं परिवाराङ्गनाः स्वतः ॥१२६॥ ततो"भुक्तोत्तरास्थाने स्थितः कतिपयैर्नृपैः । समं 'विदग्धमण्डल्या विद्यागोष्टीरभावयत् ॥१३०॥ तत्र वारविलासिन्यो नृपवल्लभिकाश्च तम् । परिवQरुपारूढतारुण्यमदकर्कशाः ॥१३१॥
तासामालापसंल्लापपरिहासकथादिभिः। सुखासिकामसौ भेजे भोगाङ्गैश्च मुहूर्तकम् ॥१३२॥ ततस्तुर्यावशेषेऽह्नि पर्यटन्मणिकुट्टिमे । वीक्षते स्म परां शोभामभितो राजवेश्मनः ॥१३३॥ सनर्मसचिव कंचित् समालम्ब्यांसपीठके । परिक्रामन्नितश्चेतो रेजे सुरकुमारवत् ॥१३॥ रजन्यामपि यत्कृत्यमुचितं चक्रवर्तिनः । तदाचरन् सुखेनैष त्रियामामत्यवाहयत् ॥१३५॥ कदाचिदुचितां वेलां नियोग इति केवलम् । मन्त्रयामास मन्त्रज्ञैः कृतकार्योऽपि चक्रभृत् ॥१३६॥
तन्त्रावायगता चिन्ता नास्यासीद् विजितक्षितेः। तन्त्र चिन्तैव नन्वस्य स्वतन्त्रस्येह भारते ॥१३७॥ कितनों ही को वार्तालापसे, कितनों ही को सम्मानसे और कितनों ही को दान आदिसे सन्तुष्ट करते थे-॥१२४॥ वे वहाँपर भेंट ले-लेकर आये हुए बड़े-बड़े पुरुषों तथा दूतोंको सम्मानित कर और उनका कार्य पूरा कर उन्हें बिदा करते थे॥१२५।। नृत्य आदि दिखानेके लिए आये हुए कलाओंके जाननेवाले पुरुषोंको बड़े-बड़े पारितोषिक देकर सन्तुष्ट करते थे ॥१२६॥ तदनन्तर सभा विसर्जन करते और राजसिंहासनसे उठकर कोमल क्रीड़ाओंके साथ-साथ अपनी इच्छानुसार विहार करते थे ॥१२७॥ तत्पश्चात् दोपहरका समय निकट आनेपर स्नान आदि करके भोजन करते और फिर अलंकार धारण करते थे ॥१२६।। उस समय परिवारकी स्त्रियाँ स्वयं आकर चमर ढोलना, पान देना और पैर दाबना आदिके द्वारा उनको सेवा करती थीं। ॥१२९।। तदनन्तर भोजनके बाद बैठने योग्य भवनमें कुछ राजाओंके साथ बैठकर चतुर लोगोंर्की मण्डलीके साथ-साथ विद्याकी चर्चा करते थे ।।१३०॥ वहाँ जवानीके मदसे जिन्हें उद्दण्डता प्राप्त हो रही है ऐसी वेश्याएं और प्रियरानियाँ आकर उन्हें चारों ओरसे घेर लेती थीं ॥१३१।। उनके आभाषण, परस्परकी बातचीत और हास्यपूर्ण कथा आदि भोगोंके साधनोंसे वे वहाँ कुछ देर तक सुखसे बैठते थे ॥१३२।। इसके बाद जब दिनका चौथाई भाग शेष रह जाता था तब मणियोंसे जड़ी हुई जमीनपर टहलते हुए वे चारों ओर राजमहलकी उत्तम शोभा देखते थे ॥१३३॥ कभी वे क्रोडासचिव अर्थात् क्रीडामें सहायता देनेवाले लोगोंके कन्धोंपर हाथ रखकर इधर-उधर घूमते हुए देवकुमारोंके समान सुशोभित होते थे ॥१३४॥ रातमें भी चक्रवर्तीके योग्य जो कार्य थे उन्हें करते हुए वे सुखसे रात्रि व्यतीत करते थे ॥१३५॥ यद्यपि वे चक्रवर्ती कृतकृत्य हो चुके थे अर्थात् विजय आदिका समस्त कार्य पूर्ण कर चके थे तथापि केवल नियोग समझकर कभी-कभी उचित समयपर मन्त्रियोंके साथ सलाह करते थे ॥१३६॥ जिन्होंने
१ महत्तरान् । २ दूतान् । ३ परितोषे भवः । ४ मृदुभिः । ५ मध्याह्न। ६ अन्वभवत् । ७ अनुलेपनम् । वस्त्रमाल्याभरणादि । 'आकल्पवेशौ नेपथ्यं प्रतिकर्म प्रसाधनम्'। ८ पादमर्दन । ९ परिचर्यां चक्रिरे। १० भोजनान्ते स्थातुं योग्यास्थाने । ११ विद्वत्समूहेन । १२ मिथोभाषण । 'संलापो भाषणं मिथः' इत्यभिधानात् । १३ सुखस्थलम् । १४ क्रीडासहाय । 'कोडा लीला च नर्म च' इत्यभिधानात् । १५ अंसो भुजशिर एव पीठस्तस्मिन् । १६ इतस्ततः । १७ रात्रि नयति स्म। १८ उचितकालपर्यन्तम् । १९ स्वराष्ट्रचिन्ताम् । अथवा शस्त्रचिन्ताम् । 'तन्त्रः प्रधाने सिद्धान्ते सत्रवाये परिच्छदे' इत्यभिधानात् ।