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चत्वारिंशत्तम पर्व
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रक्ष्यः सृष्टयधिकारोऽपि द्विजैरुत्तमसृष्टिमिः । असदृष्टिकृतां सृष्टिं परिहृत्य विदूरतः ॥१८७॥ अन्यथा सृष्टिवादेन दुर्दष्टेन' कुदृष्टयः । लोकं नृपांश्च संमोह्य नयन्त्युत्पथगामिताम् ॥१८॥ सृष्टयन्तरमतो दूरमपास्य नयतत्त्ववित् । अनादिक्षत्रियैः सृष्टां धर्मसृष्टिं प्रभावयेत् ॥१८९॥ तीर्थकृद्भिरियं सृष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी । तां संश्रितानपानेव सृष्टि हेतून् प्रकाशयेत् ॥१९०॥ अन्यथाऽन्यकृतां सृष्टिं प्रपन्नाः स्युनृपोत्तमाः । ततो नैश्वर्यमेषां स्यात्तत्रस्थाश्च स्युराहताः ॥१९१॥ व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतन्त्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥१६॥ तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति । अशुद्धः परतः शुद्धिमभीप्सन्न्यकृतो भवेत् ॥१९३॥ स्यादवध्याधिकारेऽपि स्थिराल्मा द्विजसत्तमः। ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वधमर्हति ॥१९४॥ सर्वः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मणस्तु विशेषतः । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेऽपि द्वयात्मता मता ॥१९५॥ तस्मादवध्यतामेष पोषयेद् धार्मिके जने। धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्नाभिभूयते ॥१६॥ तदमावे च वध्यत्वमयमृच्छति सर्वतः । एवं च सति धर्मस्य नश्येत् प्रामाण्यमहताम् ॥१७॥
के द्वारा की हई पात्रताको दृढ़ करें अर्थात् गुणी पात्र बनें क्योंकि पात्रताके अभावमें मान्यता नहीं रहती और मान्यताके न होनेसे राजा लोग भी धन हरण कर लेते हैं ॥१८६॥ जिनकी सृष्टि उत्तम है ऐसे द्विजोंको मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा की हुई सृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अपनी सृष्टिके अधिकारोंकी रक्षा करनी चाहिए ॥१८७॥ अन्यथा मिथ्यादृष्टि लोग अपने दूषित सृष्टिवादसे लोगोंको और राजाओंको मोहित कर कुमार्गगामी बना देंगे ॥१८८॥ इसलिए नय और तत्त्वोंको जाननेवाले द्विजको चाहिए कि मिथ्यादृष्टियोंकी अन्यसृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अनादिक्षत्रियोंके द्वारा रची हुई धर्मसृष्टिकी ही प्रभावना करे ॥१८९॥ तथा इस धर्मसृष्टिका आश्रय लेनेवाले राजाओंसे ऐसा कहे कि तीर्थंकरोंके द्वारा रची हुई यह सृष्टि अनादिकालसे चली आयी है । भावार्थ - यह धर्मसृष्टि तीर्थकरोंके द्वारा रची हुई है और अनादि कालसे चली आ रही है इसलिए आप भी इसकी रक्षा कीजिए ॥१९०।। यदि द्विज राजाओंसे ऐसा नहीं कहेंगे तो वे अन्य लोगोंके द्वारा की हुई सृष्टिको मानने लगेंगे जिससे उनका ऐश्वर्य नहीं रह सकेगा तथा अरहन्तके मतको माननेवाले लोग भी उसी धर्मको मानने लगेंगे ॥११॥ परमागमका आश्रय लेनेवाले द्विजोंको जो प्रायश्चित्त आदि कार्यों में स्वतन्त्रता है उसे ही व्यवहारेशिता कहते हैं ॥१९२।। व्यवहारेशिताके अभावमें द्विज न अपने आपको शुद्ध कर सकेगा और न दूसरेको ही शुद्ध कर सकेगा तथा स्वयं अशुद्ध होनेपर यदि दूसरेसे अपनी शुद्धि करना चाहे तो वह कभी कृती नहीं हो सकेगा ॥१९३॥ जिसका अन्तःकरण स्थिर है ऐसा उत्तम द्विज अवध्याधिकारमें भी स्थित रहता है अर्थात् अवध्य है क्योंकि ब्राह्मण गुणोंकी अधिकताके कारण किसी दूसरेके द्वारा वध करने योग्य नहीं होता ॥१९४॥ सब प्राणियोंको नहीं मारना चाहिए और विशेषकर ब्राह्मणोंको नहीं मारना चाहिए। इस प्रकार गुणोंकी अधिकता और हीनतासे हिंसामें भी दो भेद माने गये हैं ॥१९५॥ इसलिए यह धार्मिक जनोंमें अपनी अवथ्यताको पुष्ट करे। यथार्थमें वह धर्मका ही माहात्म्य है कि जो इस धर्म में स्थित रहकर किसीसे तिरस्कृत नहीं हो पाता ॥१६६॥ यदि वह अपनो अवध्यताको पुष्ट न करेगा तो सब लोगोंसे वध्य हो जावेगा अर्थात् सब लोग उसे मारने लगेंगे और ऐसा होनेपर अर्हन्तदेवके धर्मको
१ असमीक्षितेन कुदृष्टान्तेन वा । २ तां धर्मसृष्टि प्रकाशयेदित्यर्थः। ३ आत्मानमाश्रिता। अथवा पूर्व तां संश्रितां बोधयेत् तद्वक्त्यर्थम् । ४ -प्रकृतो ल०। -न्नकृती द०। ५ नृपादेः सकाशात् । ६ द्विरूपता (दुष्टनिग्रहशिष्ट प्रतिपालनता )।
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