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चत्वारिंशत्तमं पर्व किन्तु प्रजान्तरं स्वेन संबद्धं स्वगुणानयम् । प्रापयत्यचिरादेव लोहधातुं यथा रसः ॥२०६॥ ततो महानयं धर्मप्रभावोद्योतको गुणः । येनायं स्वगुणैरन्यानात्मसात्कर्तुमर्हति ॥२१०॥ असत्यस्मिन् गुणेऽन्यस्मात् प्राप्नुयात् स्वगुणच्युतिम् । सत्येवंगुणवत्तास्य निष्कृष्येत द्विजन्मनः ॥२१॥ अतोऽतिबालविद्यादीनियोगान् दशधोदितान् । यथार्थमात्मसात्कुर्वन् द्विजः स्याल्लोकसंमतः ॥२१२॥ गुणेष्वेष विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्तादधिगम्यः प्रपञ्चतः ॥२१३॥ क्रियामन्त्रानुषङ्गेण व्रतचर्याक्रियाविधौ । दशाधिकारा व्याख्याताः सद्वृत्तैराहृता द्विजैः ॥२१४॥ क्रियामन्त्रास्त्विह ज्ञेया ये पूर्वमनुवर्णिताः। सामान्यविषयाः सप्त पीठिकामन्त्ररूढयः ॥२१५॥ ते हि साधारणाः सर्वक्रियासु विनियोगिनः । तत: औत्सर्गिकानेतान् मन्त्रान् मन्त्रविदो विदुः ॥२१६॥ विशेषविषया मन्त्राः क्रियासूक्तासु दर्शिताः। इतः प्रभृति चाभ्यूह्यास्ते यथाम्नायमग्रजैः ॥२१७॥ मन्त्रानिमान् यथा योगं यःक्रियासु नियोजयेत् । स लोके संमतिं याति युक्ताचारो द्विजोत्तमः ॥२१८॥
क्रियामन्त्रविहीनास्तु प्रयोक्तृणां न सिद्धये । यथा सुकृतसंनाहाः सेनाध्यक्षा विनायकाः ॥२१६॥ विवर्णताको प्राप्त हो जाता है उस प्रकार अन्य पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेपर इस ब्राह्मणके अपने गुणोंके उत्कर्षमें कुछ बाधा नहीं आती है। भावार्थ-लोहेके सम्बन्धसे सुवर्णमें तो खराबी आ जाती है परन्तु उत्तम द्विजमें अन्य लोगोंके सम्बन्धसे खराबी नहीं आती ॥२०८॥ किन्तु जिस प्रकार रसायन अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले लोहेको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता है उसी प्रकार यह ब्राह्मण भी अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषोंको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता है ॥२०९॥ इसलिए कहना चाहिए कि यह प्रजासम्बन्धान्तर गुण, धर्मकी प्रभावनाको बढ़ानेवाला सबसे बड़ा गुण है क्योंकि इसीके द्वारा यह द्विज अपने गुणोंसे अन्य लोगोंको अपने आधीन कर सकता है ॥२१०॥ इस गुणके न रहनेपर ब्राह्मण अन्य लोगोंके सम्बन्धसे अपने गुणोंकी हानि कर सकता है और ऐसा होनेपर इसकी गुणवत्ता ही नष्ट हो जावेगी ॥२११॥ इसलिए जो अतिबालविद्या आदि दश प्रकारके नियोग निरूपण किये हैं उन्हें यथायोग्य रीतिसे स्वीकार करनेवाला द्विज ही सब लोगोंको मान्य हो सकता है ॥२१२।। इन गुणोंमें अन्य विशेष गुण बहुत विस्तारके साथ विवेचन करनेके योग्य हैं उन्हें उपासकाध्ययनशास्त्र विस्तारपूर्वक समझ लेना चाहिए ॥२१३॥ इस प्रकार व्रतचर्या क्रियाकी विधिका 'वर्णन करते समय उस क्रियाके योग्य मन्त्रोंके प्रसंगसे उत्तम आचरणवाले द्विजोंके द्वारा माननीय दश अधिकारोंका निरूपण किया ॥२१४॥ इस प्रकरणमें जिनका वर्णन पहले कर चुके हैं उन्हें क्रियामन्त्र जानना चाहिए और जो सात पीठिकामन्त्र इस नामसे प्रसिद्ध हैं उन्हें सामान्यविषयक समझना चाहिए अर्थात् वे मन्त्र सभी क्रियाओंमें काम आते हैं ॥२१५॥ वे साधारण मन्त्र सभी क्रियाओंमें काम आते हैं इसलिए मन्त्रोंके जाननेवाले विद्वान् उन्हें औत्सगिक अर्थात् सामान्य मन्त्र कहते हैं ॥२१६॥ इनके सिवाय जो विशेष मन्त्र हैं वे ऊपर कही हुई क्रियाओंमें दिखला दिये गये हैं। अब व्रतचर्यासे आगेके जो मन्त्र हैं वे द्विजोंको अपनी आम्नाय (शास्त्र परम्परा ) के अनुसार समझ लेना चाहिए ॥२१७।। जो इन मन्त्रोंको क्रियाओंमें यथायोग्य रूपसे काममें लाता है वह योग्य आचरण करनेवाला उत्तम द्विज लोकमें सन्मानको प्राप्त होता है ॥२१८॥ जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्र धारण कर तैयार हुए मुख्य-मुख्य योद्धा
१ प्रजान्तरसंबन्धेन । २ द्विजः । ३ संबन्ध्येत । नश्येदित्यर्थः । ४ अधिकारान् । ५ क्रियाणां मन्त्राः क्रियामन्त्रास्तेषामनुषङ्गो योगस्तेन । ६ पूर्वोक्तवतचर्याक्रियाविधाने । ७ साधारणान् । ८ यथायुक्ति । 'योगस्सन्नहनोपायध्यानसंगतियुक्तिषु' इत्यभिधानात् । ९ सुविहितकवचाः । १० स्वामिरहिताः ।