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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
१२३ तरुणस्य वृषस्योच्चैर्नदतो' 'विहृतीक्षणात् । तारुण्य एवं श्रामण्ये स्थास्यन्ति न दशान्तरे ॥७५॥ परिवेषोपरक्तस्य श्वेतभानोनिशामनात् । नोत्पत्स्यते तपोभृत्सु समनःपर्ययोऽवधिः ॥७६॥ अन्योन्यं सह संभूय वृषयोर्गमनेक्षणात् । वय॑न्ति मुनयः साहचर्यान्नकविहारिणः ॥७७॥ घनावरणरुद्धस्य दर्शनादंशुमालिनः । केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पञ्चमे युगे ॥७॥ पुंसां स्त्रीणां च चारित्रच्युतिः शुष्कद्र मेक्षणात् । महौषधिरसोच्छेदो जीर्णपर्णावलोकनात् ॥७॥ स्वप्नानेवंफलानेतान् विद्धि दूरविपाकिनः । नाद्य दोषस्ततः कोऽपि फलमेषां युगान्तरे ॥८॥ इति स्वप्नफलान्यस्माद् बुध्वा वत्स यथा तथा । धर्मे मति दृढं धत्स्व विश्वविघ्नोपशान्तये ॥१॥ इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यं स वर्णाश्रमपालकः । सन्देहकर्दमापायात् स प्रसन्नमधान्मनः ॥२॥ भूयो भूयः प्रणम्येशं समापृच्छय पुनः पुनः । पुनराववृते कृच्छात् स प्रीतो गुर्वनुग्रहात् ॥३॥ ततः प्रविश्य साकेतपुरमाबद्धतोरणम् । केतुमालाकुलं पौरः सानन्दमभिनन्दिनः ॥८॥ शान्तिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वमानिष्टशान्तये । जिनाभिषेकसत्पात्रदानायैः पुण्यचेष्टितैः ॥८५॥ गोदोहै: प्लाविता धात्री पूजिताश्च महर्षयः । महादानानि दत्तानि प्रीणितः प्रणयी जनः ॥६॥ निर्मापितास्ततो घण्टा जिनबिम्बैरलंकृताः । परार्ध्यरत्ननिर्माणाः संबद्धा हेमरज्जुमिः ॥८॥
गयी है ऐसे कुत्तेको नैवेद्य खाते हुए देखनेसे मालूम होता है कि व्रतरहित ब्राह्मण गुणी पात्रोंके समान सत्कार पायेंगे ॥७४। ऊँचे स्वरसे शब्द करते हुए तरुण बैलका विहार देखनेसे सूचित होता है कि लोग तरुण अवस्थामें ही मुनिपदमें ठहर सकेंगे, अन्य अवस्थामें नहीं ॥७५।। परिमण्डलसे घिरे हुए चन्द्रमाके देखनेसे यह जान पड़ता है कि पंचमकालके मुनियोंमें अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान नहीं होगा ॥७६॥ परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलोंके देखनेसे यह सूचित - होता है कि पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करनेवाले नहीं होंगे ॥७७॥ मेघोंके आवरणसे रुके हुए सूर्यके देखनेसे यह मालूम होता है कि पंचमकालमें प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय नहीं होगा ॥७८॥ सूखा वृक्ष देखनेसे सूचित होता है कि स्त्री-पुरुषोंका चारित्र भ्रष्ट हो जायेगा और जीर्ण पत्तोंके देखनेसे मालूम होता है कि महाऔषधियोंका रस नष्ट हो जायेगा ॥७६।। ऐसा फल देनेवाले इन स्वप्नोंको तू दूरविपाकी अर्थात् बहुत समय बाद फल देनेवाले समझ इसलिए इनसे इस समय कोई दोष नहीं होगा, इनका फल पंचमकालमें होगा ॥८०॥ हे वत्स, इस प्रकार मुझसे इन स्वप्नोंका यथार्थ फल जानकर तू समस्त विघ्नोंकी शान्तिके लिए धर्म में अपनी बुद्धि कर ॥८१॥ वर्णाश्रमकी रक्षा करनेवाले भरतने गुरुदेवके उपर्युक्त वचन सुनकर सन्देहरूपी कीचड़के नाश होनेसे अपना चित्त निर्मल किया ॥८२॥ वे भगवान्को बार-बार प्रणाग कर तथा बार-बार उनसे पूछकर गुरुदेवके अनुग्रहसे प्रसन्न होते हुए बड़ी कठिनाईसे वहाँसे लौटे ॥८३॥ तदनन्तर नगरके लोग आनन्दके साथ जिनका अभिनन्दन कर रहे हैं ऐसे उन महाराज भरतने जिसमें जगह-जगह तोरण बाँधे गये हैं और जो पताकाओंकी पंक्तियों से भरा हुआ है ऐसे अयोध्या नगरमें प्रवेश कर खोटे स्वप्नोंसे होनेवाले अनिष्टकी शान्तिके लिए जिनेन्द्रदेवका अभिषेक करना, उत्तम पात्रको दान देना आदि पुण्य क्रियाओंसे शान्ति कर्म किया ॥८४-८५।। उन्होंने गायके दूधसे पृथिवीका सिंचन किया, महर्षियोंकी पूजा की, बड़े-बड़े दान दिये और प्रेमीजनोंको सन्तुष्ट किया ॥८६॥ तदनन्तर उन्होंने बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए, सुवर्णकी रस्सियोंसे बँधे हुए और जिनेन्द्रदेवकी प्रति
१ ध्वनतः । २ विहरण । ३ चन्द्रस्य । ४ दर्शनात् । ५ नोदेष्यति । ६ भृशम् । ७ दूरोदयात् । ८ गोक्षीरैः । ९ बन्धुः ।