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आदिपुराणम् युक्तं परमर्षिलिङ्गेन नागीभवपदं भवेत् । परमन्द्रादिलिङ्गादिभागी भवपदं परम् ॥१५॥ एवं परमराज्यादि परमार्हन्त्यादि च क्रमात । युक्तं परमनिर्वाणपदेन च शिखापदम् ॥१५५॥
चूर्णिः-परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्र लिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमाईन्स्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव ( इत्युपनीतिक्रियामन्त्रः)
मन्त्रेणानेन शिप्यस्य कृत्वा संस्कारमादितः । निर्विकारेण वस्त्रेण कुर्यादेनं सवाससम् ॥१५६॥ कोपीनाच्छादनं चैनमन्तर्वासन कारयेत् । मौनीबन्धमतः कुर्यादनुबद्धत्रिमेलकम् ॥१५७॥ सूत्रं गणधरईब्धं व्रतचिह्न नियोजयेत् । मन्त्रपूतमतो यज्ञोपवीती स्यादसौ द्विजः ॥१८॥ जात्येव ब्राह्मणः पूर्वमिदानों व्रतसंस्कृतः । द्विर्जातो द्विज इत्येवं रूढिमास्तिघ्नुते गुणैः ॥१५॥ दयान्यणुव्रतान्यस्मै गुरुसाक्षि यथाविधिः । गुणीलानुगैश्चैनं संस्कुर्याद् व्रतजातकैः ॥१६०॥ ततोऽतिबालविद्यादीनि योगादस्य निर्दिशेत् । दत्वोपासकाध्ययनं नामापि चरणोचितम् ॥१६१॥ ततोऽयं कृत पंस्कारः सिद्धार्चनपुरःसरम् । यथाविधानमाचार्य पूजां कुर्यादतः परम् ॥१६२ ॥ तस्मिन्दिने प्रविष्टस्य भिक्षार्थं जातिवेश्मसु । योऽर्थलामः स देयः स्यादुपाध्यायाय सादरम् ॥१६३॥
सबसे पहले ‘परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव' (तू उत्कृष्ट आचार्यके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो), फिर 'परमर्षिलिङ्गभागी भव' ( परमऋषियोंके चिह्नको धारण करनेवाला हो ) और 'परमेन्द्रलिंगभागी भव' (परम इन्द्रपदके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो) ये मन्त्र बोलना चाहिए । इसी प्रकार अनुक्रमसे परम राज्य, परमार्हन्त्य और परम निर्वाण पदको 'लिङ्गभागी भव' पदसे युक्त कर 'परमराज्यलिङ्गभागी भव' ( परमराज्यके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो), 'परमार्हन्त्यलिंगभाग भव' (उत्कृष्ट अरहन्तदेवके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो) और 'परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव' (परमनिर्वाणके चिह्नोंका धारक हो ) ये मन्त्र बना लेना चाहिए ॥१५३-१५५॥
संग्रह-'परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिंगभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिंगभागी भव' ।
___इन मन्त्रोंसे प्रथम ही शिष्यका संस्कार कर उसे विकाररहित वस्त्र के द्वारा वस्त्रसहित करना चाहिए अर्थात् साधारण वस्त्र पहनाना चाहिए ॥१५६॥ इसे वस्त्रके भीतर लँगोटी देनी चाहिए और उसपर तीन लड़की बनी हुई |जकी रस्सी बाँधनी चाहिए ॥१५७॥ तदनन्तर गणधरदेवके द्वारा कहा हुआ, व्रतोंका चिह्नस्वरूप और मन्त्रोंसे पवित्र किया हुआ सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत धारण कराना चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करनेपर वह बालक द्विज कहलाने लगता है ॥१५८। पहले तो वह केवल जन्मसे ही ब्राह्मण था और अब व्रतोंसे संस्कृत होकर दूसरी बार उत्पन्न हुआ है इसलिए दो बार उत्पन्न होनेरूप गुणोंसे वह द्विज ऐसी रूढिको प्राप्त होता है ॥१५६॥ उस समय उस पुत्रके लिए विधिके अनुसार गुरुकी साक्षीपूर्वक अणुव्रत देना चाहिए और गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत रूपशीलसे सहित व्रतोंके समूहसे उसका संस्कार करना चाहिए । भावार्थ - उसे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार व्रत और शील देकर उसके संस्कार अच्छे बनाना चाहिए ॥१६०॥ तदनन्तर गुरु उसे उपासकाध्ययन पढ़ाकर और चारित्रके योग्य उसका नाम रखकर अतिबाल विद्या आदिका नियोगरूपसे उपदेश दे ॥१६१॥ इसके बाद जिसका संस्कार किया जा चुका है ऐसा वह पुत्र सिद्ध भगवान्की पूजा कर फिर विधिके अनुसार अपने आचार्यकी पूजा करे ॥१६२॥ उस दिन उस पुत्रको
१ वस्त्रस्यान्तः । २ त्रिगुणात्मकम् । ३ ब्रह्मसूत्रम् । ४ प्राप्नोति । ५ समूहैः । ६ वक्ष्यमाणान् ।