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चत्वारिंशत्तमं पर्व अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ॥११॥ क्षीराज्यममृतं पूतं नामावावयं युक्तिभिः । घातिंजयो भवेत्यस्य ह्रासयेनामिनालकम् ॥११॥ श्रीदेव्यो जात ते जात क्रियां कुर्वन्विति ब्रुवन् । तत्तनुं चूर्णवासेन शनैरुद्वत्यं यत्नतः ॥११६॥ त्वं मन्दराभिषेका) भवेति स्नपयेत्ततः । गन्धाम्बुभिश्चिरं जीव्या इत्याशास्याक्षतं क्षिपेत् ॥११७॥ नश्यात्कर्ममलं कृत्स्नमित्यास्येऽस्य" सनासिके । घृतमौषधसंसिद्धमाव पेन्मात्रया द्विजः ॥११८॥ ततो विश्वेश्वरास्तन्यभागी" भूया इतोरयन् । मातुस्तनमुपामन्त्र्य वदनेऽस्य समासजेत् ॥११॥ प्रागवर्णितमथानन्दं प्रीतिदानपुरःसरम् । विधाय विधिवत्तस्य जातकर्म समापयेत् ॥१२०॥ जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतम् । शुचौ भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मन्त्रमापठन् ॥१२१॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरम् । वसुंधरापदं चैव स्वाहान्तं द्विरुदाहरेत् ॥१२२॥ चूर्णिः-सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा। मन्त्रेणानेन संमन्व्य भूमौ सोदकमक्षतम् । क्षिप्त्वा गर्भमलं न्यस्तपञ्चरत्नतले क्षिपेत् ॥१२३॥ उसके समस्त अंगोंका स्पर्श करे और फिर प्रायः अपने समान होनेसे उसमें अपना संकल्प कर अर्थात यह मैं ही है ऐसा आरोप कर नीचे लिखे हए सभाषित पढे ॥११३॥ हे पूत्र, त मेरे अंग अंगसे उत्पन्न हुआ है और मेरे हृदयसे भी उत्पन्न हुआ है इसलिए तू पुत्र नामको धारण करनेवाला मेरा आत्मा ही है। तू सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह ॥११४॥ तदनन्तर दूध और घीरूपी पवित्र अमृत उसकी नाभिपर डालकर 'घातिजयो भव' (तू घातिया कर्मोको जीतनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर युक्तिसे उसकी नाभिका नाल काटना चाहिए ॥११५॥ तत्पश्चात् 'हे जात, श्रीदेव्यः ते जातक्रियां कुर्वन्तु' अर्थात् हे पुत्र, श्री, ही आदि देवियाँ तेरी जन्मक्रियाका उत्सव करें यह कहते हुए धीरे-धीरे' यत्नपूर्वक सुगन्धित चूर्णसे उस बालकके शरीरपर उबटन करे । फिर 'त्वं मन्दराभिषेकाो भव' अर्थात् तू मेरु पर्वतपर अभिषेक करने योग्य हो यह मन्त्र पढ़कर सुगन्धित जलसे उसे स्नान करावे और फिर 'चिरं जीव्याः' अर्थात् तू चिरकाल तक जीवित रह इस प्रकार आशीर्वाद देकर उसपर अक्षत डाले ॥११६-११७॥ इसके अनन्तर द्विज, 'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम्'-अर्थात् तेरे समस्त कर्ममल नष्ट हो जावें यह मन्त्र पढ़कर उसके मुख और नाकमें, औपधि मिलाकर तैयार किया हुआ घी मात्राके अनुसार छोड़े ॥११८॥ तत्पश्चात् 'विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूयाः' अर्थात् तू तीर्थंकरकी माताके स्तनका पान करनेवाला हो ऐसा कहता हुआ माताके स्तनको मन्त्रित कर उसे बालकके मुहमें लगा दे ॥११६॥ तदनन्तर जिस प्रकार पहले वर्णन कर चुके हैं उसी प्रकार प्रीतिपूर्वक दान देते हुए उत्सव कर विधिपूर्वक जातकर्म अथवा जन्मकालकी क्रिया समाप्त करनी चाहिए ॥१२०॥ उसके पटलको नाभिकी नालके साथ-साथ किसी पवित्र जमीनको खोदकर मन्त्र पढ़ते हुए गाड़ देनाचाहिए ।।१२१॥ उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है कि सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद, सर्वमातापद और वसुन्धरा पदको दो-दो बार कहकर अन्त में स्वाहा शब्द कहना चाहिए । अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा ( सम्यग्दृष्टि, सर्वकी माता पृथ्वीमें यह समर्पण करतो हूँ ) इस मन्त्रसे मन्त्रित कर उस भूमिमें जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकारके रत्नोंके नीचे गर्भका वह मल रख देना चाहिए और फिर कभी 'त्वत्पुत्रा इव
१ बहुसंवत्सरमित्यर्थः । २ क्षीराज्यरूपममतम् । ३ सिक्त्वा । '४ युक्तितः ल०। भक्तितः द०। ५ बालस्य । ६ स्वं कुर्यात् । छिन्द्यादित्यर्थः । ७ पुत्र ८ जातकर्म । ९ परिमलचूर्णेन । १० जीव । ११ वक्त्रे। १२ आवज वेद, क्षिपेद् वा। १३ किचित् परिमाणेन। १४ जिनजननीस्तन्यपानभागी भव। १५ त्रुवन् । १६ संयोजयेत् । १७ संप्रापयेत् । १८ जरायुपटलम् ।।