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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व
परम जिनपदानुरक्तधी
स धुतनिखिलकर्मबन्धनो
जति पुमान् य इमं क्रियाविधिम् ।
जननजरामरणान्तकृद् भवेत् ॥२१०॥ शादूलविक्रीडितम्
भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचितां जातस्ततः सद्गृही पारिव्राज्यमनुत्तरं गुरुमतादासाद्य यातो दिवम् । द्रश्रियमाप्तवान् पुनरत च्युत्वा गतश्चक्रितां
प्राप्तान्त्यपदः समग्र महिमा प्राप्नोत्यतो निर्वृतिम् ॥ २११ ॥
इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहे दीक्षान्यक्रियावर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥ ३६ ॥
१ विनाशकारी । २ स्वर्गात् ।
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वाला जो भव्य पुरुष उक्त क्रियाओं सहित जिनमतमें कहे हुए इस पुराणके धर्मका अथवा ' प्राचीन धर्मका स्मरण करता है और उसीके अनुसार आचरण करता है वह संसारसम्बन्धी भयके बन्धनको शीघ्र ही तोड़ देता है- नष्ट कर देता है || २०६ || जिसकी बुद्धि अत्यन्त उत्कृष्ट जिनेन्द्रभगवान् के चरणकमलों में अनुरागको प्राप्त हो रही है ऐसा जो पुरुष इन क्रियाओंकी विधिका सेवन करता है वह समस्त कर्मबन्धनको नष्ट करता हुआ जन्म, बुढ़ापा और मरणका अन्त करनेवाला होता है || २१० || यह भव्य पुरुष प्रथम ही योग्य जातिको पाकर सद्गृहस्थ होता है फिर गुरुकी आज्ञासे उत्कृष्ट पारिव्रज्यको प्राप्त कर स्वर्ग जाता है, वहाँ उसे इन्द्रकी लक्ष्मी प्राप्त होती है, तदनन्तर वहाँसे च्युत होकर चक्रवर्ती पदको प्राप्त होता है, फिर अरहन्त पदको प्राप्त होकर उत्कृष्ट महिमाका धारक होता है और इसके बाद निर्वाणको प्राप्त होता है ॥२११॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवाद में दीक्षान्वय और कर्त्रन्वय क्रियाओंका वर्णन
करनेवाला उनतालीसवां पर्व समाप्त हुआ ।
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