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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व
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मूादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयी । पुराण रसंमोहात् क्वचिच्च नितयी मता ॥१६९॥ कर्शयेन्मूर्त्तिमात्मीयां रक्षन्मूर्तीः शरीरिणाम् । तपोऽधितिष्ठेद् दिव्यादिमूर्तीराप्तमना मुनिः ॥१७॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनाम् । लक्षणान्यभिसंधार्य तपस्येत् कृतलक्षणः ॥१७१॥ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाञ्छन्दिव्यादिसौन्दर्यमनिवार्यपरम्परम् ॥१७२॥ मलीमसाङ्गो व्युत्सृष्टस्वकायप्रभवप्रभः । प्रभोः प्रभां मुनिायन् भवेत् क्षिप्रं प्रभास्वरः ॥१३॥ स्वं मणिस्नेह दीपादितेजोपास्य जिनं भजन् । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्ज्वलः ॥१७॥ त्यक्त्वाऽस्त्र वस्त्र शस्त्राणि 'प्राक्तनानि प्रशान्तिभाक् । जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् । त्यनस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातकं जिनम् । मूनि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनम् ॥१७६॥ स्वं स्वाम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनम् । सेवित्वा सेवनीयत्वमेष्यत्येष जगजनैः ॥१७७॥ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । सैंह विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ॥१८॥
'स्वोपधानाद्यनादृत्य योऽभूनिरुप धिर्भुवि । शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रार्पितशिरस्तटः॥७९॥ जाति होती है ॥१६८॥ इन चारोंकी कल्पना मूर्ति आदिमें कर लेनी चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार जातिके दिव्या आदि चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति आदिके भी समझ लेना चाहिए। परन्तु पुराणोंको जाननेवाले आचार्य मोहरहित होनेसे किसी-किसी जगह तीन ही भेदोंको कल्पना करते हैं । भावार्थ - सिद्धों में स्वा मूर्ति नहीं मानते हैं ॥१६९।। जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिए तथा अन्य जीवोंके शरीरोंकी रक्षा करते हए तपश्चरण करना चाहिए ॥१७०॥ इसी प्रकार अनेक लक्षण धारण करनेवाला वह पुरुष अपने लक्षणोंको निर्देश करनेके अयोग्य मानता हुआ जिनेन्द्रदेवके लक्षणोंका चिन्तवन कर तपश्चरण करे ॥१७१॥ जिनकी परम्परा अनिवार्य है ऐसे दिव्य आदि सौन्दर्यो - की इच्छा करता हुआ वह मुनि अपने शरीरके सौन्दर्यको मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे ॥१७२।। जिसका शरीर मलिन हो गया है, जिसने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली प्रभाका त्याग कर दिया है और जो अर्हन्तदेवकी प्रभाका ध्यान करता है ऐसा साधु शीघ्र ही देदीप्यमान हो जाता है अर्थात दिव्यप्रभा आदि प्रभाओंको प्राप्त करता है॥१७३॥ जो मनि अपने मणि और तेलके दोपक आदिका तेज छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्र भगवान्की आराधना करता है वह प्रभामण्डलसे उज्ज्वल हो उठता है ॥१७४॥ जो पहलेके अस्त्र, वस्त्र और शस्त्र आदिको छोड़कर अत्यन्त शान्त होता हुआ जिनेन्द्र भगवान्की आराधना करता है वह योगिराज धर्मचक्रका अधिपति होता है ॥१७५॥ जो मुनि स्नान आदिका संस्कार छोड़ कर केवली जिनेन्द्र का आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिन्तवन करता है वह मेरुपर्वतके मस्तकपर उत्कृष्ट जन्माभिषेकको प्राप्त होता है ॥१७६।। जो मुनि अपने इस लोक-सम्बन्धी स्वामीपनेको छोड़कर परमस्वामी श्रीजिनेन्द्र देवकी सेवा करता है वह जगत्के जीवोंके द्वारा सेवनीय होता है अर्थात् जगत्के सब जीव उसकी सेवा करते हैं ॥१७७।। जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनोंके भेदोंका त्याग कर दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासनपर आरूढ़ होकर तीर्थको प्रसिद्ध करनेवाला अर्थात् तीर्थ कर होता है ।।१७८॥ जो मुनि अपने तकिया आदिका अनादर कर परिग्रह१ दिव्यमूर्तिविजयमूर्तिः परममूर्तिः स्वात्मोत्थमूर्तिरिति एवमुत्तरत्रापि योजनीयम्। २ सिद्धादौ । ३ नामसंकीर्तनं कर्तुमयोग्यमिति । ४ ध्यात्वा । ५ गुणः प्रतीतः । 'गुणैः प्रतीते तु कृतलक्षणाहितलक्षणो' इत्यभिधानात् । ६ म्लानि कुर्वन् । ७ जिनस्य । ८ तेलाम्यङ्गन । ९ दिव्यास्त्र । १० -व्यस्त्र-ट० । करमुक्तः । ११ सामान्यास्त्र । १२ प्रकृष्टज्ञानातिशयम् । १३ स्वामित्वम् । १४ निजोपवर्हासनादि । 'उपधानं तूपवहम्' . इत्यभिधानात् । १५ निःपरिग्रहः ।।