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आदिपुराणम् मलिनाचरिता ह्येते कृष्णवर्गे द्विजब्रुवाः । जैनास्तु निर्मलाचाराः शुक्लवर्गे मता बुधैः ॥१३८॥
श्रुतिस्मृति पुरावृत्त वृत्तमन्त्रक्रियाश्रिता । देवतालिङ्गकामान्तकृता शुद्धिर्द्विजन्मनाम् ॥१३९॥ ये विशुद्धतरां वृत्तिं तत्कृतां समुपाश्रिताः । ते शुक्लवर्गे बोधव्याः शेषाः शुद्धेः बहिः कृता ॥१०॥ तच्छुद्ध यशुद्धी बोधव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायो दयावृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणम् ॥१४१॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माजना वर्णोत्तमा द्विजाः । वर्णान्तःयातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥ १४२॥ स्यादारेका च षटकर्मजीविनां गृहमधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याजैनानां च द्विजन्मनाम् ॥१४३॥ इत्यत्र महे सत्य मल्पसावद्यसंगतिः । तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥१४॥ अपि चैषां विशुद्धयङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥१४५॥ तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृंहितम् ॥ ४६॥ चर्या तु देवतार्थं वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा । औषधाहारक्लपत्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥१४७॥ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैर्विधीयते । पश्चाच्चात्मालयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥१४॥
तो दुःखके साथ कहना पड़ेगा कि बेचारे धर्मात्मा लोग व्यर्थ ही नष्ट हुए ॥१३७॥ ये द्विज लोग मलिन आचारका पालन करते हैं और झूठमूठ ही अपनेको द्विज कहते हैं इसलिए विद्वान् लोग इन्हें कृष्णवर्ग अर्थात् पापियोंके समूहमें गर्भित करते हैं और जैन लोग निर्मल आचारका पालन करते हैं इसलिए इन्हें शक्लवर्ग अर्थात् पुण्यवानोंके समूहमें शामिल करते हैं ॥१३८।। द्विज लोगोंकी शुद्धि श्रुति, स्मृति, पुराण, सदाचार, मन्त्र और क्रियाओंके आश्रित है तथा देवताओंके चिद धारण करने और कामका नाश करनेसे भी होती है ।।१३।। जो श्रति स्मृति आदिके द्वारा की हुई अत्यन्त विशुद्ध वृत्तिको धारण करते हैं उन्हें शुक्लवर्ग अर्थात् पुण्यवानोंके समूहमें समझना चाहिए और जो इनसे शेष बचते हैं उन्हें शुद्धिसे बाहर समझना चाहिए अर्थात् वे महा अशुद्ध हैं ॥१४०॥ उनकी शुद्धि और अशुद्धि, न्याय और अन्यायरूप प्रवृत्तिसे जाननी चाहिए। 'दयासे कोमल परिणाम होना न्याय है और प्राणियोंका मारना अन्याय है ॥१४१॥ इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन लोग ही सब वर्गों में उत्तम हैं । वे ही द्विज हैं। ये ब्राह्मण आदि वर्गों के अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम हैं और जगत्पूज्य हैं ॥१४२॥
___. अब यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो असि मषी आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है परन्तु इस विषयमें हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविकाके लिए छह कर्म करनेवाले जैन गृहस्थोंके थोड़ी-सी हिंसाकी संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रोंमें उन दोषोंकी शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है ॥१४३-१४४।। उनकी विशुद्धिके अंग तीन हैं पक्ष, चर्या और साधन । अब मैं यहाँ इन्हीं तीनका वर्णन करता हूँ ॥१४५॥ उन तीनोंमें-से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग करना जैनियोंका पक्ष कहलाता है ॥१४६॥ किसी देवताके लिए, किसी मन्त्रकी सिद्धिके लिए अथवा किसी औषध या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीवकी हिंसा नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है ॥१४७।। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि १ पाप। २ पुण्य । ३ आगम । ४ धर्मसंहिता। ५ पुराण । ६ श्रुतिस्मृत्यादिकृताम् । ७ जैनद्विजोत्तरयोः शयशुद्धिः । ८ वर्णमात्रवर्तिनः । ९ शङ्का । १० "हिंसादोषोऽनुसंगो स्यात्' इत्यत्र । ११ सत्यमित्यङ्गीकारे । १२ चेष्टिते । व्यापारे इत्यर्थः । १३ प्रमादजनिते दोषे। १४ - चात्मान्वयं द०,ल०, इ०,०,प०, स०।।