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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व
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ब्रमणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्म गाः समुदाहृताः । ब्रह्मा स्वयंभूर्भगवान् परमेष्टी जिनोत्तमः ॥१२७॥ सादिपरमब्रह्मा जिनेन्द्रो गुणबृंहणात् । परं ब्रह्म यदायत्तमामनन्ति मुनीश्वराः ॥१२॥ नै गाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ॥१२९॥ दिव्यमूर्जिनेन्द्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥१३०॥ वर्णान्तःपातिनो नैते मन्तव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमन्त्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥१३१॥ वर्णोत्तमानिमान् विद्मः क्षान्तिशौचपरायणान् । संतुष्टान प्राप्तवैशिष्टयानक्लिष्टाचारभूषणान् ॥३२॥ 'क्लिष्टाचाराः परे नैव ब्राह्मणा द्विजमानिनः । पापारम्भरता शश्वदाहत्य पशुपातिनः ॥१३३॥ सर्वमेधमयं धर्ममभ्युपेत्य पशुघ्नताम् । का नाम गतिरेषां स्यात् पापशास्त्रोपजीविनाम् ॥१३॥ चोदनालक्षणं धर्ममधर्म प्रतिजानते'। ये तेभ्यः कर्मचाण्डालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥१३५॥ पार्थिवैर्दण्डनीयाश्च लुण्टाकाः पापपण्डिताः । तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्नन्त्यघृणाः पशुन् ॥१३६॥ "पशुहत्यासमारम्भात् क्रव्यादेभ्योऽपि निष्कृपाः । यद्यच्छुिति मुशन्त्येते हन्तैवं धार्मिका हताः ॥१३७
आगे फिर भी कुछ कहता हूँ ॥१२६॥ जो ब्रह्माको सन्तान हैं, उन्हें ब्राह्मण कहते हैं और - स्वयम्भू , भगवान्, परमेष्ठी तथा जिनेन्द्रदेव ब्रह्मा कहलाते हैं। भावार्थ - जो जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश सुनकर उनकी शिष्य-परम्परामें प्रविष्ट हुए हैं वे ब्राह्मण कहलाते हैं ।।१२७।। श्रीजिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा हैं क्योंकि वे ही गुणोंको बढ़ानेवाले हैं और उत्कृष्ट ब्रह्म अर्थात् ज्ञान भी उन्हींके अधीन है ऐसा मुनियोंके ईश्वर मानते हैं ॥१२८॥ जो मृगचर्म धारण करता है, जटा, दाढ़ी आदि चिह्नोंसे युक्त है तथा कामके वश गधा होकर जो ब्रह्मतेज अर्थात् ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता ।।१२६। इसलिए जिन्होंने दिव्य मूर्तिके धारक श्री जिनेन्द्रदेवके निर्मल ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म प्राप्त किया है वे ही द्विज कहलाते हैं ।।१३०॥ व्रत, मन्त्र तथा संस्कारोंसे जिन्हें गौरव प्राप्त हुआ है ऐसे इन उत्तम द्विजोंको वर्णों के अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए अर्थात् ये वर्णोत्तम हैं ॥१३१॥ जो क्षमा और शौच गुणके धारण करने में सदा तत्पर हैं, सन्तुष्ट रहते हैं, जिन्हें विशेषता प्राप्त हुई है और निर्दोष आचरण हो जिनका आभूषण है ऐसे इन द्विजोंको सब वर्गों में उत्तम मानते हैं ॥१३२॥ इनके सिवाय जो मलिन आचारके धारक है, अपनेको झूठमूठ द्विज मानते हैं, पापका आरम्भ करने में सदा तत्पर रहते हैं और हठपूर्वक पशुओंका घात करते हैं वे ब्राह्मण नहीं हो सकते ॥१३३॥ जो समस्त हिंसामय धर्म स्वीकार कर पशुओंका घात करते हैं ऐसे पापशास्त्रोंसे आजीविका करनेवाले इन ब्राह्मणोंकी न जाने कौन-सी गति होगी ? ॥१३४॥ जो अधर्म स्वरूप वेदमें कहे हुए प्रेरणात्मक धर्मको धर्म मानते हैं मैं उनके सिवाय इस पृथिवीपर और किसीको कर्म चाण्डाल नहीं देखता हूँ अर्थात् वेदमें कहे हुए धर्मको माननेवाले सबसे बढ़कर कर्म चाण्डाल हैं ॥१३५।। जो निर्दय होकर पशुओंका घात करते हैं वे पापरूप कार्यों में पण्डित हैं, लुटेरे हैं, और धर्मात्मा लोगोंसे बाह्य हैं; ऐसे पुरुष राजाओंके द्वारा दण्डनीय होते हैं ॥१३६॥ पशुओंकी हिंसा करनेके उद्योगसे जो राक्षसोंसे भी अधिक निर्दय हैं यदि ऐसे पुरुष ही उत्कृष्टताको प्राप्त होते हों तब
१ परमपदे स्थितः । '२ कामाद् गर्दभाकारमुख इत्यर्थः । ३ अध्ययनसंपत्तेः । ४ अकलुषात् । ५ वर्णमात्रवर्तिन इत्यर्थः । ६ दुष्ट । ७ हात्, साक्षात् वा। ८ हिंसामयम् । ९ हिंसां कुर्वताम् । १० वेदोक्तलक्षणम् । ११ प्रतिज्ञां कुर्वते । १२ चौराः । १३ निःकृपा । १४ पशुहननप्रारम्भात् । १५ राक्षसेभ्यः । 'राक्षसः कोणप: क्रव्यात् क्रव्यादोऽस्रप आशरः' इत्यभिधानात् । १६ उन्नलिम् ।