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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व अथातः संप्रवक्ष्यामि द्विजाः कन्वयक्रियाः । याः प्रत्यासननिष्ठस्य भवेयुभव्यदेहिनः॥१॥ तत्र सजातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी । या सा वासन्नमव्यस्य नृजन्मोपगमे भवेत् ॥२॥ स नृजन्मपरिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये । विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ॥८३॥ विशुद्धकुलजात्यादिसंपत्सजातिरुच्यते । 'उदितोदितवंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती ॥८॥ पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥४५॥ विशुद्धिरुभयस्यास्य सजातिरनुवर्णिता । यत्प्राप्तौ सुलमा बोधिरयत्नोप नतैर्गुणैः ॥८६॥ 'सजन्मप्रतिलम्भोऽयमार्यावर्त विशेषतः । सत्यां देहादिसामग्रयां श्रेयः सूते हि देहिनाम् ॥८७॥ शरीरजन्मना सैषा सजातिरुपवर्णिता। एतन्मूला यतः सर्वाः पुंसामिष्टार्थसिद्धयः ॥८॥ संस्कारजन्मना चान्या सजातिरनुकीर्त्यते । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भव्यात्मा समुपाश्नुते ॥८९॥ विशुद्धाकरसंभूतो मणिः संस्कारयोगतः । यात्युत्कर्ष यथाऽऽत्मैवं क्रियामन्त्रैः सुसंस्कृतः ॥१०॥ "सुवर्णधातुरथवा शुद्धयेदासाद्य संस्क्रियाम् । यथा तथैव भव्यात्मा शुद्धयत्यासादितक्रियः ॥११॥ ज्ञानजः स तु संस्कारः सम्यग्ज्ञानमनुत्तरम् । यदाथ लभते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥१२॥
अथानन्तर-हे द्विजो, मैं आगे उन कन्वय कियाओंको कहता हूँ जो कि अल्पसंसारी भव्य प्राणी ही के हो सकती हैं ॥८१॥ उन कर्ज़न्वय कियाओंमें कल्याण करनेवाली सबसे पहली किया सज्जाति है जो कि किसी निकट भव्यको मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर होती है ॥८२॥ मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर जब वह दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंशमें विशुद्ध जन्म धारण करता है तब उसके यह सज्जाति नामकी क्रिया होती है ॥८३॥ विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी सम्पदा सज्जाति कहलाती है। इस सज्जातिसे ही पुण्यवान् मनुष्य उत्त
रोत्तर उत्तम उत्तम वंशोंको प्राप्त होता है ।।८४॥ पिताके वंशको जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माताके वंशको शुद्धि जाति कहलाती है ॥८५॥ कुल और जाति इन दोनोंकी विशुद्धिको सज्जाति कहते हैं, इस सज्जातिके प्राप्त होनेपर बिना प्रयत्नके सहज ही प्राप्त हुए गुणोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है ॥८६।। आर्यखण्डकी विशेषतासे सज्जातित्वकी प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलनेपर प्राणियोंके अनेक प्रकारके कल्याण उत्पन्न करती है । भावार्थ-यदि आर्यखण्डके विशुद्ध वंशोंमें जन्म हो और शरीर आदि योग्य सामग्रीका सुयोग प्राप्त हो तो अनेक कल्याणोंकी प्राप्ति सहज ही हो जाती है ।।८७॥ यह सज्जाति उत्तम शरीरके जन्मसे ही वर्णन की गयी है क्योंकि पुरुषोंके समस्त इष्ट पदार्थोंकी सिद्धिका मूलकारण यही एक सज्जाति है ।।८८॥ संस्काररूप जन्मसे जो सज्जातिका वर्णन किया जाता है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्य जीव द्विजन्मपनेको प्राप्त होता है ।।८९।। जिस प्रकार विशुद्ध खानमें उत्पन्न हुआ रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है उसी प्रकार कियाओं और मन्त्रोंसे सुसंस्कारको प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्षको प्राप्त हो जाता है ॥९०॥ अथवा जिस प्रकार सुवर्ण पाषाण उत्तम संस्कारको पाकर शद्ध हो जाता है उसी प्रकार भव्य जीव उत्तम कियाओंको पाकर शद्ध हो जाता है ॥९॥ वह संस्कार ज्ञानसे उत्पन्न होता है, सबसे उत्कृष्ट ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिस समय वह पुण्यवान् भव्य साक्षात् सर्वज्ञ देवके मुखसे उस उत्तम ज्ञान
१ भो विप्राः । २ प्रत्यासन्नमोक्षस्य । ३ सा चासन्न - ल०। ४ उत्तरोत्तराभ्युदयवदन्वयत्वम् । ५ यत् सज्जाती प्राप्ती सत्याम् । ६ रत्नत्रयप्राप्तिः । ७ उपागतः । ८ सज्जातिपरिप्राप्तिः । ९ आर्याखण्ड । 'आर्यावर्तः पुण्यभूमिः' इत्यभिधानात् । १० एषा सज्जातिमूल कारणं यासां ताः । ११ यतः करणात् । १२ संस्कारजन्मसज्जातिम् । १३ उत्कर्ष याति । १४ सुवर्णपाषाणः ।