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एकोनचत्वारिंशत्तमं पव
२७५ वर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात् संबन्धं' संविधित्सतः। समानाजीविभिलब्ध वणरन्यैरुपासकैः ॥६१॥ चतुरः श्रावकज्येष्ठानाहूय कृतसक्कियान् । तान् ज्यादसम्यनुप्रायो मवद्भिः स्वसमीकृतः ॥६॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ॥६३॥ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनाम् । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनम् ॥६४॥ अयोनिसंभवं जन्म लब्ध्वाहं गुर्वनुग्रहात् । चिरभावितमुत्सृज्य प्राप्तो वृत्तमभावितम् ॥६५॥ व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम् । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि स्वधीतोपासकश्रुतः ॥६६॥ व्रतावतरणस्यान्ते स्वीकृताभरणोऽस्म्यहम् । पत्नी च संस्कृताऽऽत्मीया कृतपाणिग्रहा पुनः ॥६७॥ एवं कृतव्रतस्याद्य वर्णलाभो ममोचितः । सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात् सधर्मणाम् ॥६८॥ इत्युक्तास्ते च तं सत्यमेवमस्तु समञ्जसम् । त्वयोक्तं इलाध्यमेवैतत् कोऽन्यस्त्वत्सदृशो द्विजः ॥६९॥ युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा। समानाजीविभिः कर्तुं संबन्धोऽभिमतो हि नः ॥७॥ इत्युक्त्वैनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युञ्जते । विधिवत् सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षताम् ॥७१॥
इति वर्णलाभक्रिया। वर्णलामोऽयमुद्दिष्टः कुल चर्याऽधुनोच्यते । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुलचर्याऽस्य पुष्कला ॥७२॥
इति कुलचर्या । तदनन्तर – जिन्हें वर्णलाभ हो चुका है और जो अपने समान ही आजीविका करते . हैं ऐसे अन्य श्रावकोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा करनेवाले उस भव्य पुरुषके वर्णलाभ नामको किया होती है ॥६१॥ इस क्रियाके करते समय वह भव्य चार बड़े-बड़े श्रावकोंको आदर-सत्कार कर बुलावे और उनसे कहे कि आप लोग मुझे अपने समान बनाकर मेरा अनुग्रह कीजिए ॥६२॥ आप लोग संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं, संसारमें पूज्य हैं और मैंने भी दीक्षा लेकर श्रावकके व्रत ग्रहण किये हैं ॥६३।। मैंने गृहस्थोंके सम्पूर्ण धर्मका आचरण किया है, दान भी दिये हैं और गुरुओंका पूजन भी किया है ॥६४॥ मैंने गुरुके अनुग्रहसे योनिके बिना ही उत्पन्न होनेवाला जन्म धारण किया है, और चिरकालसे पालन किये हए मिथ्याधर्मको छोड़कर जिसका पहले कभी चिन्तवन भी नहीं किया था ऐसा सम्यक् . चारित्र धारण किया है ॥६५॥ व्रतोंकी सिद्धिके लिए ही मैंने इस समय यज्ञोपवीत धारण किया है और श्रावकाचारके प्ररूपंक श्रुतका अच्छी तरह अध्ययन कर विद्वान् भी हो गया हूँ ॥६६॥ व्रतावतरण कियाके बाद ही मैंने आभूषण स्वीकार किये हुए हैं, मैंने अपनी पत्नीके भी संस्कार किये हैं और उसके साथ दुबारा विवाहसंस्कार भी किया है ॥६७॥ इस प्रकार व्रत धारण करनेवाले मुझको वर्णलाभकी प्राप्ति होना उचित है और वह भी आप साधर्मी पुरुषोंकी आज्ञासे सहज ही प्राप्त हो सकती है ॥६८॥ इस प्रकार कह चुकनेपर वे श्रावक कहें कि ठीक है, ऐसा ही होगा, तुमने जो कुछ कहा है वह सब प्रशंसनीय है, तुम्हारे समान और दूसरा द्विज कौन है ? ॥६९।। आप-जैसे पुरुषोंके न मिलनेपर हम लोगोंको समान जीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके साथ भी सम्बन्ध करना पड़ता है ॥७०॥ इस प्रकार कहकर वे श्रावक उसे आश्वासन दें और वर्णलाभसे युक्त करावें तथा वह भव्य भी विधिपूर्वक वर्णलाभको पाकर उन सब श्रावकोंकी समानताको प्राप्त होता है ॥७१॥ यह तेरहवीं वर्णलाभ नामकी किया है । _यह वर्णलाभ किया कह चुके । अब कुलचर्या किया कही जाती है । आर्य पुरुषोंके करने १ कन्याप्रदानादानादिसंबन्धम् । २ संविधातुमिच्छतः । ३ सदृशार्यषट्कर्मादिवृत्तिभिः। ४ विचक्षणः । ५ चतुःसंख्यान्। ६ युष्मत्सदृशीकृतः । ७ चिरकालसंस्कारितम् । मिथ्यात्ववृत्तमित्यर्थः । ८ पूर्वस्मिन्नभावितम् । सद्वत्तमित्यर्थः । ९ संपूर्णविद्यः । १० सुष्ठवधीतः । ११-सकवतः ल०, द०। १२ सावधीकृतकतिचिद्वतावतारणावसाने । १३ इष्टम् ।