________________
एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
२७३ 'निर्दिष्टस्थानलाभस्य पुनरस्य गणग्रहः । स्यान्मिथ्यादेवताः स्वस्माद् विनिःसारयतो गृहात् ॥४५॥ इयन्तं कालमज्ञानात् पूजिताः स्थ कृतादरम् । पूज्यास्त्विदानीमस्माभिरस्मत्समयदेवताः ॥४६॥ ततोऽपम षितेनालमन्यत्र स्वैरमास्यताम् । इति प्रकाशमेवैतान् नीत्वाऽन्यत्र क्वचित्त्यजेत् ॥४७॥ गणग्रहः स एष स्यात् प्राक्तनं देवताङ्गणम् । विसृज्यार्चयतः शान्ता देवताः समयोचिताः ॥४८॥
इति ग्रहणक्रिया। पूजाराध्याख्यया ख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा । पूजोपवाससंपत्त्या शृण्वतोऽङ्गार्थसंग्रहम् ॥४९॥
इति पूजाराध्यक्रिया । ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी । शृण्वतः पूर्व विद्यानामथं संब्रह्मचारिणः ॥५०॥
इति पुण्ययज्ञक्रिया। तथाऽस्य दृढचर्या स्यात् क्रिया स्वसमयश्रुतम् । निष्टाप्य' शृण्वतो ग्रन्यान् बाह्यानन्यांश्च कांश्चन ॥५१॥
इति दृढचर्याक्रिया। दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता। "पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ॥५२॥
इति उपयोगिताक्रिया। पारणाके लिए विदा करे और वह भव्य भी गुरुके अनुग्रहसे सन्तुष्ट होता हुआ अपने घर जावे ॥४४॥ यह तीसरी स्थानलाभ क्रिया है।
जिसके लिए स्थानलाभकी क्रियाका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसा भव्य पुरुष जब मिथ्यादेवताओंको अपने घरसे बाहर निकालता है तब उसके गणग्रह नामकी क्रिया होती है ॥४५॥ उस समय वह उन देवताओंसे कहता है कि 'मैंने अपने अज्ञानसे इतने दिन तक आदरके साथ आपकी पूजा की परन्तु अब अपने ही मतके देवताओंकी पूजा करूँगा इसलिए क्रोध करना व्यर्थ है। आप अपनी इच्छानुसार किसी दूसरी जगह रहिए।' इस प्रकार प्रकट रूपसे उन देवताओंको ले जाकर किसी अन्य स्थानपर छोड़ दे ॥४६-४७॥ इस प्रकार पहले देवताओंका विसर्जन कर अपने मतके शान्त देवताओंकी पूजा करते हुए उस भव्यके यह गणग्रह नामकी चौथी क्रिया होती है ॥४८॥ यह चौथी गणग्रह क्रिया है।
तदनन्तर पूजा और उपवासरूप सम्पत्तिके साथ-साथ अंगोंके अर्थसमहको सननेवाले उस भव्यके पूजाराध्या नामकी प्रसिद्ध क्रिया होती है । भावार्थ-जिनेन्द्रदेवकी पूजा तथा उपवास आदि करते हुए द्वादशांगका अर्थ सुनना पूजाराध्य क्रिया कहलाती है ॥४९।। यह पाँचवीं पूजाराध्य क्रिया है।
तदनन्तर साधर्मी पुरुषोंके साथ-साथ चौदह पूर्वविद्याओंका अर्थ सुननेवाले उस भव्यके पुण्यको बढ़ानेवाली पूण्ययज्ञा नामकी भिन्न क्रिया होती है ॥५०॥ यह छठी पुण्ययज्ञा क्रिया है।
__ इस प्रकार अपने मतके शास्त्र समाप्त कर अन्य मतके ग्रन्थों अथवा अन्य किन्हीं दूसरे विषयोंको सननेवाले उस भव्यके दढचर्या नामकी क्रिया होती है ॥५१॥ यह दढचर्या नामकी सातवीं क्रिया है।
तदनन्तर जिसके व्रत दृढ़ हो चुके हैं ऐसे पुरुषके उपयोगिता नामकी क्रिया होती है। १ उपदेशित । २ भवथ । ३ ततः कारणात् । ४ ईर्षया क्रोधेन वा । ५ प्रकटं यथा भवति तथा । ६ निजमत । ७ द्वादशाङ्गसंबन्धिद्रव्यसंग्रहादिकम् । ८ चतुर्दशविद्यानां संबन्धिनम् । ९ सहाध्यापिसहितस्य । 'एकब्रह्मव्रताचारा मियः सब्रह्मचारिणः ।' इत्यभिधानात् । १० संपूर्णमधीत्य । ११ पर्वोपवासरात्रावित्यर्थः ।
३५