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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
२६५ समञ्जसत्वमस्येष्टं प्रजास्वविषमेक्षिता। आनृशंस्यमवाग्दण्डपारुष्यादिविशेषितम् ॥२७९॥ ततो जितारिषड्वर्गः स्वां वृत्ति पालयनिमाम् । स्वराज्ये सुस्थितो राजा प्रेत्य चेह च नन्दति ॥२८०॥ समं समञ्जसत्वेन कुलमत्यात्मपालनम् । प्रजानुपालनं चेति प्रोक्ता वृत्तिर्महीक्षिताम् ॥२८॥ 'ततः क्षात्रमिमं धर्म यथोक्तमनुपालयन् । स्थितो राज्ये यशो धर्म विजयं च त्वमाप्नुहि ॥२८२॥ प्रशान्तधीः समुत्पन्नबोधिरित्यनुशिष्य तम् । परिनिष्क्रान्तिकल्याणे सुरेन्द्ररमिपूजितः ॥२८३॥ महादानमथो दत्वा साम्राज्यपदमुत्सृजन् । स राजराजो राजर्षिनिष्क्रामति गृहाद् वनम् ॥२८॥ धौरेयैः पार्थिवैः किंचित् समुक्षिप्तां महीतलात् । स्कन्धाधिरोपितां भूयः सुरेन्द्र तिनिर्भरैः ॥२५॥ आरूढः शिबिकां दिव्यां दीप्तरत्नविनिर्मिताम् । विमानवसति भानोरिवाऽऽयातां महीतलम् ॥२८६॥ पुरस्सरेषु निःशेषनिरुद्धव्योमवीथिषु । सुरासुरेषु तन्वत्सु संदिग्धार्कप्रभ नभः ॥२७॥ अनूत्थितेषु संप्रीत्या पार्थिवेषु ससंभ्रमम् । कुमारमग्रतः कृत्वा प्राप्त राज्यं नवोदयम् ॥२८॥ अनुयायिनि तत्त्यागादिव मन्दीमवद्युतौ । निधीनां सह रत्नानां संदोहेऽभ्यर्णसंक्षये ॥२८९॥
राजाको अपनी तथा प्रजाको रक्षा करनेमें समंजसवृत्ति अर्थात् पक्षपातरहित होना चाहिए क्योंकि जो राजा असमंजसवृत्ति होता है, वह अपने ही लोगोंके द्वारा अपमानित होने लगता है ॥२७८॥ समस्त प्रजाको समान रूपसे देखना अर्थात् किसीके साथ पक्षपात नहीं करना ही राजाका समंजसत्व गुण कहलाता है। उस समंजसत्व गुणमें क्रूरता या घातकपना नहीं होना चाहिए और न कठोर वचन तथा दण्डकी कठिनता ही होनी चाहिए ॥२७९॥ इस प्रकार जो राजा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरंग शत्रुओंको जीतकर अपनी इस वृत्तिका पालन करता हुआ स्वकीय राज्यमें स्थिर रहता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें समृद्धिवान् होता है ॥२८०॥ पक्षपातरहित होकर सबको एक समान देखना, कुलकी समर्यादाकी रक्षा करना, बुद्धिकी रक्षा करना, अपनी रक्षा करना और प्रजाका पालन करना यह सब राजाओंकी वृत्ति कहलाती है ॥२८१॥ इसलिए हे पुत्र, ऊपर कहे हुए इस क्षात्रधर्मकी रक्षा करता हुआ तू राज्यमें स्थिर रहकर अपना यश, धर्म और विजय प्राप्त कर ॥२८२॥ जिनकी बुद्धि अत्यन्त शान्त है और जिन्हें भेदविज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे वे भगवान् ऊपर लिखे अनुसार पुत्रको शिक्षा देकर दीक्षाकल्याणके लिए इन्द्रोंके द्वारा पूजित होते हैं ॥२८३॥ अथानन्तर महादान देकर साम्राज्यपदको छोड़ते हुए वे राजाधिराज राजर्षि घरसे वनके लिए निकलते हैं ॥२८४॥ प्रथम ही मुख्य-मुख्य राजा लोग जिसे पृथिवीतलसे उठाकर कन्धेपर रखकर कुछ दूर ले जाते हैं और फिर भक्तिसे भरे हुए देव लोग जिसे अपने कन्धोंपर रखते हैं, जो देदीप्यमान रत्नोंसे बनी हुई है और जो पृथिवीतलपर आये हुए सूर्यके विमानके समान जान पड़ती है ऐसी दिव्य पालकीपर वे भगवान् सवार होते हैं ॥२८५-२८६॥ जिस समय समस्त आकाश-मार्गको रोकते हुए और अपनी कान्तिसे आकाशमें सूर्यकी प्रभाका सन्देह फैलाते हुए सुर और असुर आगे चलते हैं, जिसे राज्य प्राप्त हुआ है और जिसका नवीन उदय प्रकट हुआ है ऐसे कुमारको आगे कर बड़े प्रेम और सम्भ्रमके साथ जब समस्त राजा लोग भगवान्के समीप खड़े होते हैं, जिनका भगवान्के समीप रहना छूट चुका है और भगवान्के छोड़ देनेसे ही मानो जिनकी कान्ति मन्द पड़ गयी है ऐसे निधि और रत्नोंका समूह जब उनके पीछे-पीछे आता है, जिसने वायुके वेगसे उड़ती हुई ध्वजाओंके समूहसे आकाशको व्याप्त १ समदशित्वम् । २ अनृशंसस्य भावः । अघातुकत्वमित्यर्थः । ३ भवान्तरे । ४ ततः कारणात् । ५ स्वमाप्नुहि प०, इ० । ६ पुत्रम् । ७ दीक्षावनम् । ८ अन्तःस्थितेषु ल.1