________________
अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
२६७
प्रातिहार्याष्टकं दिव्यं गगो द्वादशधोदितः । स्तूपहावली सालवलयः केतुमालिका ॥३०२॥ इत्यादिकामिमां भूतिमद्भुतामुपबिभ्रतः । स्यादाहन्त्यमिति ख्यातं क्रियान्तरमनन्तरम् ॥३०३॥
___ इति आर्हन्त्यक्रिया। विहारस्तु प्रतीतार्थो धर्मचक्रपुरस्सरः । प्रपञ्चितश्च प्रागेव ततो न पुनरुच्यते ॥३०॥
इति विहारक्रिया। ततः परार्थसम्पत्त्यै धर्ममार्गोपदेशने । कृततीर्थविहारस्य योगत्यागः परा क्रिया ॥३०५॥ विहारस्योपसंहारः संहृतिश्च सभावनेः । वृत्तिश्च योगरोधार्था योगत्यागः स उच्यते ॥३०६॥ यच्च दण्डकपाटादिप्रतीतार्थ क्रियान्तरम् । तदन्तर्भूतमेवादस्ततो न पृथगुच्यते ॥३०७॥
इति योगत्यागक्रिया। ततो निरुद्धनिःशेषयोगस्यास्य जिनेशिनः । प्राप्तशैलेश्यवस्थस्य प्रक्षीणा घातिकर्मणः ॥३०८॥ क्रियामनिवृतिर्नाम परनिर्वाणमापुषः । स्वभावजनितामूर्ध्व व्रज्यामास्कन्दतो मता ॥३०९॥
इति अग्रनिर्वृतिः । इति निर्वाणपर्यन्ताः क्रिया गर्भादिकाः सदा । मव्यात्मभिरनुष्ठेयास्त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात् ॥३१०॥ यथोक्तविधिनैताः स्युरनुष्ठेया द्विजन्ममिः । योऽप्यत्रान्तर्गतो भेदस्तं वच्म्युत्तरपर्वणि ॥३११॥
प्रातिहार्य आदि बाह्य विभूति प्रकट होती है ।।३०१॥ इस प्रकार आठ प्रातिहार्य, बारह दिव्य सभा, स्तूप, मकानोंकी पंक्तियाँ, कोटका घेरा और पताकाओंकी पंक्ति इत्यादि अद्भुत विभूतिको धारण करनेवाले उन भगवान्के आर्हन्त्य नामकी एक भिन्न क्रिया कही गयी है ॥३०२३०३।। यह आर्हन्त्य नामकी पचासवीं क्रिया है ।
धर्मचक्रको आगे कर जो भगवान्का विहार होता है वह विहार नामकी क्रिया है। यह किया अत्यन्त प्रसिद्ध है और पहले ही इसका विस्तारके साथ निरूपण किया जा चुका है इसलिए फिरसे यहाँ नहीं कहते हैं ॥३०४॥ यह इक्यावनवीं विहार किया है। .. तदनन्तर धर्ममार्गके उपदेशके द्वारा परोपकार करनेके लिए जिन्होंने तीर्थ विहार किया है ऐसे भगवान्के योगत्याग नामकी उत्कृष्ट किया होती है ॥३०५॥ जिसमें विहार करना समाप्त हो जावे, सभाभूमि ( समवसरण ) विघट जावे, और योगनिरोध करनेके लिए अपनी वृत्ति करनी पड़े उसे योगत्याग कहते हैं ॥३०६॥ दण्ड, कपाट आदि रूपसे प्रसिद्ध जो केवलिसमुद्घात नामकी किया है वह इसो योगत्याग कियामें अन्तर्भूत हो जाती है इसलिए अलगसे उसका वर्णन नहीं किया है ।।३०७।। यह बावनवीं योगत्याग नामकी किया है ।
तदनन्तर जिनके समस्त योगोंका निरोध हो चुका है, जो जिनोंके स्वामी हैं, जिन्हें शीलके ईश्वरपनेकी अवस्था प्राप्त हुई है, जिनके अघातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं जो स्वभावसे उत्पन्न हुई ऊर्ध्वगतिको प्राप्त हुए हैं और जो उत्कृष्ट मोक्षस्थानपर पहुँच गये हैं ऐसे भगवान्के अग्रनिर्वृति नामकी किया मानी गयी है ॥३०८-३०९॥ यह तिरेपनवीं अग्रनिर्वृति नामकी किया है।
इस प्रकार गर्भसे लेकर निर्वाण पर्यन्त जो सब मिलाकर तिरेपन क्रियाएँ हैं भव्य पुरुषोंको सदा उनका पालन करना चाहिए ॥३१०॥ द्विज लोगोंको ऊपर कही हुई विधिके अनुसार इन क्रियाओंका पालन करना चाहिए। इन क्रियाओंके जो भी अन्तर्गत भेद
१ धृतमार्गोप-प० । २ यत्र दण्ड-प०, ल०। ३ योगत्यागानन्तर्भूतम् । ४ शैलेशितावस्थस्य । ५ -मायुषः अ०, इ०, ५०, स०, द० । ६ ऊर्ध्वगमनम् । ७ गच्छतः ८ समुच्चयाः ल० । ९ त्रिपञ्चाशक्रियासु ।