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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व श्रावकानार्यिकासवं श्राविकाः संयतानपि । सन्मार्ग वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत ॥१६९।। श्रतार्थिभ्यः श्रुतं दद्याद् दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम् । धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत प्रतिपादयत ॥१७०।। सवृत्तान् धारयन् सूरिस्सद्वृत्तान्निवारयन् । शोधयंश्च कृतादागोमलात सविभृयाद् गणम् ॥१७१।।
इति गणोपग्रहणम् । गणपोषणमिन्याविष्कुर्वन्नाचार्यसत्तमः । ततोऽयं स्वगुरुस्थानसंक्रान्तो यत्नवान् भवेत् ।।१७२।। अधीतविद्यं तद्विचैराहतं मुनिसत्तमैः । योग्यं शिष्यमथाय तस्मै स्वं भारमर्पयत् ।।१७३।। गुरोरनुमतात् सोऽपि गुरुस्थानमधिष्ठितः । गुरुवृत्तौ स्वयं तिष्टन् वर्तयेदखिलं गणम् ॥१७४।।
इति स्वगुरुस्थानावाप्तिः । तत्रारोप्य भरं कृत्स्नं काले कस्मिंश्चिदव्यथः । कुर्यादेकविहारी स निःसंगत्वान्मभावनाम् ॥१७५।। निःसगवृत्तिरेकाकी विहरन् स महातपाः । चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ॥१७६।। अपि रागं समुत्सृज्य शिष्यप्रवचनादिपु । निर्ममत्वैकतानः संश्चर्याशुद्धिं तदाऽश्रयेत् ॥१७७।।
इति निःसंगत्वात्मभावना । कृत्वैवमात्मसंस्कारं ततः सल्लेखनोद्यतः । कृतात्मशुद्धिरध्यात्म योगनिर्वाणमाप्नुयात् ।।१७८।। करने में जो तत्पर रहता है उसको महर्षियोंने गणोपग्रहण नामकी किया मानी है ॥१६८।। इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंको समीचीन मार्गमें लगाता हुआ अच्छी तरह संघका पोषण करे ॥१६९॥ उसे यह भी चाहिए कि वह शास्त्र अध्ययनकी इच्छा करनेवालोंको दीक्षा देवे और धर्मात्मा जीवोंके लिए धर्मका प्रतिपादन करे ।।१७०॥ वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको प्रेरित करे, दुराचारियोंको दूर हटावे और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रित गणकी रक्षा करे ॥१७१॥ यह अट्ठाईसवीं गणोपग्रहण किया है ।
तदनन्तर इस प्रकार संघका पालन करता हुआ वह उत्तम आचार्य अपने गुरुका स्थान प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न सहित हो ॥१७२॥ जिसने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं और उन विद्याओंके जानकार उत्तम-उत्तम मुनि जिसका आदर करते हैं ऐसे योग्य शिष्यको बुलाकर उसके लिए अपना भार सौंप दे ॥१७३॥ गुरुको अनुमतिसे वह शिष्य भी गुरुके स्थानपर अधिष्ठित होता हुआ उनके समस्त आचरणोंका स्वयं पालन करे और समस्त संघको पालन करावे ॥१७४॥ यह उन्तीसवीं स्वगरु-स्थानावाप्ति क्रिया है।
इस प्रकार सुयोग्य शिष्यपर समस्त भार सौंपकर जो किसी कालमें दुःखी नहीं होता है ऐसा साधु अकेला विहार करता हुआ 'मेरा आत्मा सब प्रकारके परिग्रहसे रहित है' इस प्रकारकी भावना करे ॥१७५॥ जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है और जो केवल अपने आत्माका ही संस्कार करना चाहता है उसे किसी अन्य पदार्थका संस्कार नहीं करना चाहिए अर्थात् अपने आत्माको छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधारको चिन्तामें नहीं पड़ना चाहिए ।।१७६॥ शिष्य पुस्तक आदि सब पदार्थोंमें राग छोड़कर और निर्ममत्वभावनामें एकाग्र बुद्धि लगाकर उस समय उसे चारित्रकी शुद्धि धारण करनी चाहिए ॥१७७॥ यह तीसवीं निःसङ्गत्वात्मभावना क्रिया है।
तदनन्तर इस प्रकार अपने आत्माका संस्कार कर जो सल्लेखना धारण करनेके लिए उद्यत हुआ है और जिसने सब प्रकारसे आत्माकी शुद्धि कर ली है ऐसा १ सारयन् अ०, प०, इ०, स०, ल०, द० । २ पोषयेद् । ३ तिष्ठेद् वर्तयेत् सकलं गणम् ल ।