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आदिपुराणम् योगो ध्यानं तदर्थो यो यत्रः संवेगपूर्वकः । तमाहुर्योगनिर्वाणसंप्राप्तं परमं तपः ॥१७६।। कृत्वा परिकर योग्यं तनुशोधनपूर्वकम् । शरीरं कर्शयेदोषैः समं रागादिभिस्तदा ॥१८॥ तदेतद्योगनिर्वाणं संन्यासे पूर्वभावना। जीविताशां मृतीच्छां च हित्वा भव्यात्मलब्धये ॥१८१।। रागद्वेषौ समुत्सृज्य श्रेयोऽवाप्तौ च संशयम् । अनात्मीयेषु चात्मीयसंकल्पाद् विरमत्तदा ॥१८२।। नाहं देहो मनो नास्मि न वाणी न च कारणम् । तत्त्रयस्येत्यनुद्विग्नो भजेदन्यत्वभावनाम् ॥१८३॥ अहमेको न मे कश्चिन्नैवाहमपि कस्यचित् । इत्यदीनमनाः सम्यगेकत्वमपि भावयेत् ॥१८॥ यतिमाधाय लोकाग्रे नित्यानन्तसुखास्पदे । भावयेद् योगनिर्वाणं स योगी योगसिद्धये ॥१८॥
इति निवार्णसंप्राप्तिः । ततो निःशेषमाहारं शरीरं च समुत्सृजन् । योगीन्द्रो योगनिर्वाणसाधनायोद्यतो भवेत् ॥१८६।। उत्तमार्थे कृतास्थानः संन्यस्ततनुरुद्धधीः। ध्यायन् मनोवचः कायान् बहिर्भूतान् स्वकान् स्वतः॥१८॥ प्रणिधार्य मनोवृत्ति पदेषु परमेष्टिनाम् । जीवितान्ते स्वसाकुर्याद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥१८॥ योगः समाधिनिर्वाणं तत्कृता चित्तनिर्वृतिः । तेनेष्टं साधनं यत्तद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥१८६॥ .
इति योगनिर्वाणसाधनम् । पुरुष योगनिर्वाण क्रियाको प्राप्त हो ॥१७८॥ योग नाम ध्यानका है उसके लिए जो संवेगपूर्वक प्रयत्न किया जाता है उस परम तपको योगनिर्वाण संप्राप्ति कहते हैं ॥१७९॥ प्रथम ही शरीरको शुद्ध कर सल्लेखनाके योग्य आचरण करना चाहिए और फिर रागादि दोषोंके साथ शरीरको कृश करना चाहिए ॥१८०॥ जीवित रहनेकी आशा और मरनेकी इच्छा छोड़कर 'यह भव्य है' इस प्रकारका सुयश प्राप्त करनेके लिए संन्यास धारण करनेके पहले भावना की जाती है वह योगनिर्वाण कहलाता है ॥१८१।। उस समय रागद्वेष छोड़कर कल्याणकी प्राप्तिमें प्रयत्न करना चाहिए और जो पदार्थ आत्माके नहीं हैं, उनमें 'यह मेरे हैं' इस संकल्पका त्याग कर देना चाहिए ॥१८२।। न मैं शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न इन तीनोंका कारण ही हूँ। इस प्रकार तीनोंके विषयमें उद्विग्न न होकर अन्यत्व भावनाका चिन्तवन करना चाहिए ॥१८३॥ इस संसार में मैं अकेला हूँ न मेरा कोई है और न मैं भी किसीका हूँ, इस प्रकार उदार चित्त होकर एकत्वभावनाका अच्छी तरह चिन्तवन करना चाहिए ॥१८४॥ जो नित्य और अनन्त सुखका स्थान है ऐसे लोकके अग्रभाग अर्थात् मोक्षस्थानमें बुद्धि लगाकर उस योगीको योग ( ध्यान ) को सिद्धि के लिए योग निर्वाण क्रियाकी भावना करनी चाहिए। भावार्थसल्लेखनामें बैठे हुए साधुको संसारके अन्य पदार्थोंका चिन्तवन न कर एक मोक्षका ही चिन्तवन करना चाहिए ॥१८५।। यह इकतीसवीं योगनिर्वाणसंप्राप्ति क्रिया है।
तदनन्तर - समस्त आहार और शरीरको छोड़ता हुआ वह योगिराज योगनिर्वाण साधनके लिए उद्यत हो ।।१८६।। जिसने उत्तम अर्थात् मोक्षपदार्थमें आदर बुद्धि की है, शरीरसे ममत्व छोड़ दिया है और जिसकी बुद्धि उत्तम है ऐसा वह साधु अपने मन, वचन, कायको अपने आत्मासे भिन्न अनुभव करता हुआ अपने मनकी प्रवृत्ति पंचपरमेष्ठियोंके चरणोंमें लगावे और इस प्रकार जीवनके अन्तमें योगनिर्वाण साधनको अपने अधीन करे - स्वीकार करे ॥१८७-१८८।। योग नाम समाधिका है उस समाधिके द्वारा चित्तको जो आनन्द होता है उसे निर्वाण कहते हैं, चूंकि यह योगनिर्वाण इष्ट पदार्थोंका साधन है - इसलिए इसे योगनिर्वाण साधन कहते हैं ॥१८९।। यह बत्तीसवीं योगनिर्वाण साधन किया है। "१ तद् ध्यानम् अर्थः प्रयोजनं यस्य । २ प्रथमभावना। ३ भव्याकल-ल०, द० । ४ संश्रयेद् अ०, ५०, स०। देहमनोवाक्त्रयस्य । ५ संन्यासे । ६ कृतादरः । ७ हिरुग्भूतात्मकान् स्वतः ट० । पृथग्भूतस्वरूपकान् । ८ एकाग्रं कृत्वा । ९ पञ्चपदेषु । १० चित्तालादः ।